SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 441
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चारणवरण श्रावकाचार ४२७॥ अन्वयार्थ—(साधुणो) साधु महाराज (लोके) इस लोकमें (रत्नत्रयं च संयुक्तं ) व्यवहार रत्नत्रय र सहित (ति अर्थ शुद्धं च व्यानं ) निश्चय रत्नत्रयमई शुद्ध ध्यानको (साधय ) साधन करते हैं (तेन ) इस कारणसे वे (अबढ़) बंध रहित व वीतरागी (दिष्टते) दिखाई पड़ते हैं।। विशेषार्थ-जो व्यवहार सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान व सम्यक्चारित्रके द्वारा निश्चय रत्नत्रयमई शुद्ध आत्मध्यानका साधन करते हैं वे साधु हैं। ये साधु सर्व परिग्रह रहित होते हैं मात्र पीछी कमण्डल रखते हैं। वीतरागमय ही उनकी सर्व चेष्टा दिखलाई पडती है। वे समताभावसे वर्तन करते हैं। निंदा व प्रशंसाम सम भाव रखते हैं। उपसर्ग व परीषहोंको शांतभावसे सहते हैं। जगतके प्रपंचसे बिलकुल उदासीन हैं। ख्यातिलाभ पूजादिकी चाह रहिन शुद्ध धर्म पालते हैं। अवसर पाकर धर्मापदेश देकर भव्य जीवोंको सुमार्ग पर आरूढ करते हैं। श्लोक-ज्ञान चारित्र संपूर्ण, क्रिया त्रेपन संजुतं । पंचव्रत पंच समति, गुति त्रय प्रतिपालकं ॥ ४४६ ॥ अन्वयार्थ (ज्ञान चारित्र संपूर्ण) साधु सम्यग्ज्ञान और सम्यकूचारिखसे परिपूर्ण हैं (पन किया संयुतं) त्रेपन श्रावककी क्रिया सहित हैं (पंचवत पंच समति) पांच महावत पांच समिति (गुप्ति त्रय प्रतिपालक) और तीन गुप्तिके पालनेवाले हैं। विशेषार्थ-निग्रंथ जैन साधु शास्त्र ज्ञाता व आत्मज्ञानी होते हैं। पूर्ण चारित्रके अभ्यासी होते हैं। जहांतक श्रावक थे चारित्र अपूर्ण था । श्रावककी श्रेपन क्रिया साध चुके हैं, मुनिपद में भी जो जो योग्य हैं, उनको अब भी साधते हैं। वे ५३ क्रियाएँ ३८ मूलगुण + १२ व्रत + १२ तप + समताभाव+११ प्रतिमा+४ दान+जल गालन+रात्रि भोजन त्याग+ रत्नत्रय धर्म तीन कुल ५३॥ इनमें १२तप, समताभाव, रात्रिभुक्ति त्याग, रत्नत्रय इनका अभ्यास साधुपदमें भी रहता है। दानमें ज्ञानदान व अभयदान साधु देते हैं। शेष नियम आरम्भ त्याग होनेसे आवश्यक नहीं हैं। उनसे जो आवश्यक है, वे तेरहप्रकार साधुके चारित्रमें गर्मित हैं। पांच महाव्रत-अहिंसास्थावर व स सर्व जन्तुओंकी पूर्णपने रक्षा करना। कोई प्रारम्भी क्रिया भी नहीं करना। २सत्यं सदा शास्त्रोक्त वचन स्वपर हितकारी कहना । प्राण जानेपर भी असत्य न कहना । ३- ४
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy