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कारणवरण
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अचौर्य - विना दी हुई वस्तु जल आदि भी व वृक्षका पत्ता आदि भी कभी नहीं लेना । ४- ब्रह्मचर्य - मन, वचन, काय कृतकारित, अनुमोदनासे ९ प्रकार शीलव्रत पालना । देवी, तिर्थचनी, मनुष्यणी व काष्ट चित्रामकी स्त्रियोंसे पूर्णपने चैरागी रहना। उनकी संगतिसे बचना जिससे कामविकार हो । ५- परिग्रह त्याग — क्षेत्र, मकान, वस्त्रादि परिग्रहका त्याग कर नग्न होकर तप करना, मात्र धर्म साधक उपकरण रखना । जैसे जीव रक्षा हेतु मोरपिच्छिका, शौच के लिये काष्टके कमण्डल में जल व ज्ञानके लिये शास्त्र ।
पांच समिति - ईर्ष्या - चार हाथ भूमि निरखकर दिनमें रौंदे हुए मार्ग में समभावसे गमन करना । २- भाषा–शुद्ध मिष्ठ अल्प वचन कहना । ३ - एषणा- शुद्ध भोजन जो उनके उद्देश्य से न बनाया हो, गृहस्थने अपने लिये बनाया हो उसमेंसे भिक्षाविधिपूर्वक दिये जानेपर संतोष से दिन में एकवार लेना, हाथमें ही ग्रास लेना । ४ - आदाननिक्षेपण - अपना शरीर, पीछो, कमण्डल, शास्त्रादि देखकर उठाना व धरना । ५- प्रतिष्ठापना मल मूत्रादि शरीरका मल निर्जंतु भूमिपर क्षेपण करना । तीन गुप्ति- मन- में धर्मध्यान रखना, आर्त व रौद्रध्यानसे व सांसारिक चिंता से बचाना । वचन - मौन रहना, यदि कहना पड़े तो धर्म साधक वचन कहना । काय-शरीरका निश्चल रखना, देख करके व झाड करके आसन बदलना, आलस्यरूप न रहना, दो घडीसे अधिक लगातार न सोना इन ११ प्रकार चारित्रको साधुगण भलेप्रकार पालते हैं ।
श्लोक – चारित्रं चरणं शुद्धं, समय शुद्धं च उच्यते ।
संपूर्ण ध्यान योगेन, साधओ साधु लोकयं ।। ४४७ ॥
मन्वयार्थ - (साधु लोकमं) साधु महाराज ( शुद्धं चारित्रं चरणं ) शुद्ध निर्दोष व्यवहार व निश्चय चारित्रको पालते हैं (समय शुद्धं च उच्यते ) निश्चय चारित्र शुद्ध आत्मा रूप कहा जाता है (संपूर्ण ध्यान योगेन साधयो) उसे पूर्णपने ध्यान समाधि द्वारा साधन करते हैं।
विशेषार्थ – निर्भथ साधुगण तेरह प्रकार चारित्रको निर्दोष पालते हुए मुख्य शुद्ध आत्मा के अनुभव रूप स्वरूपाश्चरण या मिश्चप चारित्रपर ध्यान रखते हैं। पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत sulah अभ्यास से नाना प्रकार कठिन स्थानोंमें तिष्ठकर परम वैराज्यके साथ निज आत्माका अनु
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