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________________ श्रावकाचार पारणवरण १४२९॥ ACKGEGEGREECH GEECREENCELEGRAcette भव करते हैं। उपसर्ग परीषहोंको शांत भावसे सहन करते हैं। ध्यानके द्वारा निश्चय चारित्रकी ४ पूर्णता करते हैं ऐसा साधन करते हैं। धर्मध्यानको पूर्ण करके फिर श्रेणी चढनेकी योग्यता होनेपर उपशम था क्षपक श्रेणी पर चढके शुक्लध्यानका अभ्यास करते हैं। अरहंत पदपर जाकर सिद्ध होनेकी भावना साधुगण सदा रखते हैं। श्लोक-सम्यग्दर्शनं ज्ञानं, चारित्रं शुद्ध संयमं । जिनरूपं शुद्ध द्रव्याथ, साधओ साधु उच्यते ॥ ४४८॥ अन्वयार्थ-जो (सम्यग्दर्शनं ज्ञानं चारित्रं ) सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यग्चारित्रको (शुद्ध संयम ) शुद्ध संयमको (जिनरूपं) जिनेन्द्र के स्वरूपको (शुद्ध द्रव्यार्थ) शुद्ध आत्म द्रव्यके भावको (साधओ) साधन करते हैं वे (साधु उच्यते) साधु कहलाते हैं। विशेषार्थ—जो साधन करै वह माधु है। मोक्षकीपिद्धिके लिये जो मोक्षमार्ग साधै वह साधु है। जिसके और कोई तीन लोकके किमी पर्यायकी सिद्धिकी भावना नहीं है। इन्द्र अहमिंद्र चक्रवर्ती आदि क्षणभंगुर पदोंसे जो उदास है। सिद्ध होनेके लिये वे साधु दृढतासे अपने श्रद्धानको शुद्ध * दोष रहित रखते हैं यह सम्यग्दर्शनका साधन है। शास्त्रोंका रहस्य बडे भावसे विचारते रहते हैं। ज्ञानकी उन्नति करते रहते हैं। वह सम्यग्ज्ञानका साधन है। तेरह पकार चारित्रको दोष रहित पालते हैं यह सम्यक्चारित्रका साधन है। पांच इंद्रिय व मनका दमनरूप इंद्रिय संयम तथा षट्र कायके जीवोंकी रक्षारूप प्राणि संयम इन दो प्रकार संयमको अथवा सामायिक, दोपस्थापना आदि संयमको शुद्धताके साथ साधन करते हैं। जिनेन्द्रका स्वरूप ध्यानमें लेकर उसी तरह आप वर्तन करते हुए अरईत होने की भावना करते हैं तथा शुद्ध द्रव्यार्थिकनयके आलम्बनसे शुख आत्माका मनन करते करते शुद्धोपयोगमें जमनेका साधन करते हैं। जो इतनी क्रिया सावे वह साधु है। श्लोक-ऊर्द्ध अधो मध्यं च, लोकालोक विलोकित ।। आत्मानं शुद्धात्मानं, महात्मा महाव्रतं ॥ ४४९॥ अन्वयार्थ-ऊर्द्ध भयो मध्यं च) ऊपर नीचे व मध्यमें सपतीन लोकमें (लोकालोक विलोकित) लोका"
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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