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मो.मा.
प्रकाश
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वर्णादिककों ही परिग्रह कहौ । बहुरि जो कहोगे, जैसैं क्षुधाके अर्थि आहार ग्रहण कीजिए | है, तैसे शीतउष्णादिक के अर्थि वस्त्रादिक ग्रहण कीजिए है । सो मुनिपद अङ्गीकार करते |
आहार का त्याग किया नाही, परिग्रह का त्याग किया है। वहुरि अन्नादिकका तो संग्रह । | करना परिग्रह है, भोजन करने, जाय सो परिग्रह नाहीं । अर वस्त्रादिकका संग्रह करना वा| | पहिरना सर्व परिग्रह है सो लोकविषे प्रसिद्ध है। बहुरि कहोगे शरीरकी स्थिति के अर्थि व-11
स्त्रादिक राखिए है-ममत्त्व नाहीं तातें इनकों परिग्रह न कहिए । सो श्रद्धानविणे तो जब || | सम्यग्दृष्टी भया तब ही समस्त परद्रव्यविषै ममत्वका अभाव भया । तिस अपेक्षा तौ चौथा | गुणस्थान ही परिग्रहरहित कहो । अर प्रवृत्तिविर्षे ममत्व नाहीं तो कैसैं ग्रहण करै हैं । ताते ।।
वस्त्रादिक ग्रहण धारण छूटेगा तब ही निःपरिग्रह होगा। बहुरि कहोगे-वस्त्रादिककौं कोई । | ले जाय तो क्रोध न करै वा क्षुधादिक लागै तो बैंच नाही, वा वस्त्रादिकपहरि प्रसाद करै ।।
नाहीं । परिणामनिकी स्थिरताकरि धर्म ही साधे है, तातें ममत्व नाहीं । सो बाह्य क्रोध मति | " करौ, परन्तु जाका ग्रहणविणे इष्ट बुद्धि होय, ताका वियोगविणे अनिष्टबुद्धि होय ही जाय । जो अनिष्ट बुद्धि न भई, तो बहुरि ताके अर्थि याचना काहेकौं करिए है। बहुरि बेचते नाहीं | सो धातु राखनेते अपनी हीनता जानि नाहीं बेचिए है । जैसे धनादि राखने तैसें ही वस्त्रादि राखने । लोकवि परिग्रहके चाहक जीवनिकै दोऊनिको इच्छा है । ताते चौरादिक के भया-||
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