________________
सारणतरण
श्रावकाचार
भाव होते हैं यह कार्य सदासे होरहा है इसलिये अनादि सम्बन्ध है। परन्तु पुराना कर्म झड़ता है नया आता है इसलिये सादि सम्बन्ध है। इसीसे शुद्धता भी होसक्ती है। जब नवीन कर्मबन्धके
कारण रागद्वेष मोहको न किया जावे तब नया बन्ध न होगा व पुराना बंध वीतरागताके प्रभावसे ७ नष्ट होजायगा फिर आत्मा शुद्ध होजायगा । तत्वार्थसारमें अमृतचन्द्र आचार्य कहते हैं:
__दग्धेबीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मबीने तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः ॥ ॥
भावार्थ-बीज तथा वृक्षके अनादि सम्बन्ध चले आनेपर भी यदि बीजको जला दिया जावे तो फिर उससे वृक्षका पैदा होना बंद होजायगा इसी तरह कर्मों के बीजोंको जला देने पर फिर संसारका कारणभूत रागद्वेष मोहरूपी अंकुर नहीं पैदा होगा। _ ग्रंथकारने दिखलाया है कि शुद्धात्माकी भक्ति, किसी विषय व कषायकी पुष्टिके लिये या लौकिक धन पुत्रादिके लिये नहीं करनी चाहिये। मात्र कर्मबंध काटनेके लिये व स्वयं शुद्ध होनेके लिये ही करनी चाहिये । जैसा कि तत्वार्थसूत्रकी आदिमें मंगलाचरण है
मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृतां । ज्ञातारं विश्वतत्त्वाना, वंदे तदगुणलब्धये ॥ भावार्थ-मैं मोक्षमार्गके नेता, कर्म पर्वतोंके चूर्ण कर्ता व सर्व तत्वोंके ज्ञाता परमात्माको उन ही गुणोंकी प्राप्तिके लिये अर्थात् कर्म क्षय करके शुद्ध होनेके लिये नमन करता हूं।
श्लोक-परमेष्टी परं ज्योति, आचनंतचतुष्टयं ।
ज्ञानं पंचमयं शुद्धं, देवदेवं नमाम्यहं ॥ ४ ॥ अन्वयार्थ- अहं) मैं (परमेष्टी ) परम पद में रहनेवाले ( परं ज्योति ) परम ज्योति स्वरूप ( आचनंतचतुष्टयं ) अनंत चतुष्टयमें आचरण करनेवाले (पंचमयं ज्ञानं ) पंचम केवलज्ञानमई (शुद्ध) शुद्ध वीतराग (देवदेव) देवोंके देव परमात्माको (नमामि) नमस्कार करता हूँ।
विशेषार्थ-यहां भी परमात्माको ही नमस्कार किया गया है। जो उत्कृष्ट पद मोक्षमें विराज* मान हैं, अपने स्वपर प्रकाशक ज्ञानसे जो दीपककी ज्योतिकी तरह चमक रहे हैं जो केवलज्ञानमई
हैं । मति, श्रुत, अवधि, मनापर्यय ये चार ज्ञान क्षयोपशम रूप विभाव ज्ञान है जब कि केवलज्ञान