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तारणतरण ॥५॥
है उसीको नमस्कार किया गया है। वह परिपूर्ण है । अपने सम्पूर्ण गुण व पर्यायोंको लिये हुए पूर्ण कुंभकी तरह भरा हुआ है । उसमें कोई अपूर्णता के कारक कर्मोंके विकार नहीं हैं । वह रागद्वेषादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म व शरीरादि नोकर्मसे रहित है । इसीसे वह शुद्ध है । वह अभावरूप नहीं है, किंतु सद्भाव रूप है । स्वानुभवसे निश्चय किया जाता है इसीसे वह अर्थ है । गुणों में तल्लीनतःरूप भावरूप भक्ति है । वचनरूप व काय नमनरूप द्रव्यभक्ति है। दोनोंसे मैं वारवार नमन करता हूँ । ऐसा कहकर ग्रंथकारने अपनी गाढ़ श्रद्धा परमात्मा के तत्व में झलकाई है । कोई भी कार्य हो किसी भी हेतुसे किया जाता है । ग्रंथकारने बताया है कि मैंने जो शुद्धात्माका स्मरण किया है व उसके स्वरूपमें अपने उपयोगको जोड़ा है वह इसी प्रयोजनसे है कि मेरे आत्माके साथ बंधरूप कर्मोका नाश होजावें । उनसे मैं शुद्ध होजाऊं । कर्म सूक्ष्म पुद्गल स्कंध हैं । संसारी जीवोंके साथ प्रवाहकी या संतानकी अपेक्षा अनादि सम्बन्ध है । कभी आत्मा कर्म रहित संसारमें न था । तथापि कर्मका संयोग एक तरहका नहीं चला आरहा | कमका संयोग या बंध कुछ कालके लिये होता है । आठ कमोंमें मोहनीय कर्मकी स्थिति सबसे अधिक है। मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति ७० सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरकी है । मोहनीय कर्मके स्कंध बंधनके पीछे इतने कालके भीतर सब अवश्य झड़ जायगे । इस अपेक्षा विचार किया जावे तो कमका सम्बन्ध आदि सहित भी है।
ग्रन्थकारने जैन सिद्धांतका यथार्थ भाव अनादि व सादि शब्दोंको देकर बता दिया है। यदि एकांतसे अनादि सम्बन्ध माना जाय तो वह कभी छूट नहीं सक्ता। यदि एकांतसे सादि सम्बन्ध माना जावे तो यह मानना पड़ जायगा कि कभी आत्मा शुद्ध था फिर यह अशुद्ध हुआ। दोनों दोषोंका निराकरण इन दो शब्दों के द्वारा होजाता है। यही वस्तुका स्वरूप भी है। अनादि जगतमें अनादिसे ही बीज वृक्षकी तरह जीव और कर्मका सम्बन्ध है जैसे- किसी बीजसे वृक्ष होता है । उस वृक्षसे फिर बीज होता है फिर बीजसे वृक्ष होता है । यद्यपि नवीन नवीन बीज व वृक्ष होता है। तथापि यह कार्य बराबर सदा से चला आता है । यदि हम कहें कि पहले वृक्ष ही था या पहले बीज ही था तौ बाधा आती है कि बीज विना वृक्ष कैसे या वृक्ष विना बीज कैसे । बीज वृक्षका सम्बन्ध अनादि भी है सादि भी है । इसी तरह जीवोंके अशुद्ध भावोंसे कर्मका संयोग होता है । कर्मसंयोगसे अशुद्ध
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