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________________ तारणतरण श्रावकाचार चितवन किया है। आलम्बनके लिये ॐ ह्रीं श्रीं तीन मंत्र पद कहे हैं। शुद्ध आत्मामें सदा ही स्वभा.स *वोंकी सत्ता रहती है। जैसे मिश्री मिष्ठतासे, नीम कटुकतासे, खटाई आम्लपनेसे, लवण खारपनेसे . परिपूर्ण भरा है वैसे ही आत्मा अपने ज्ञानादि स्वभावोंसे परिपूर्ण भरा ह । यही शुद्ध आत्मा संपूर्ण श्रतज्ञान रूप इसी लिये कहा गया है कि सम्पूर्ण श्रुतज्ञानका सार आत्माका ज्ञान है । अथवा ज्ञान जानी आत्मासे अलग नहीं है। जो श्रुतज्ञानको जानता है वह आत्माको जानता है। जो आत्माको जानता है वह सर्व श्रतज्ञानको जानता है। ऐसा ही कथन परम अध्यात्म समुद्र के पारगामी श्री कुंदकुंद महाराजने श्री समयसारजीमें किया है जो हि सुदेणभिगच्छदि, अप्पाणमिणंतु केवकं सुद्धं । तं सुद केवलिमिसिणो, भणंति लोगप्पदीवयरा ॥९॥ जो सुदणाणं सव्वं, जाणदि सुदकेवली तमाहु मिणा । सुदणाण माद सव्वं, मम्हा सुदकेवली तम्हा ॥१॥ भावार्थ-जो कोई निश्चयसे भावश्रुतके द्वारा इस आत्माकों असहाय और शुद्ध जानता ह उसको लोक स्वरूपके प्रकाशक परम ऋषि श्रुतकेवली कहते हैं। जो कोई सर्व द्वादशांग श्रुतज्ञानको जानता है उसको जिनेन्द्रदेव (व्यवहार नयसे) श्रुतकेवली कहते हैं। क्योंकि सर्व ही श्रुतज्ञान ॐ आत्मामें है व आत्मारूप है। इसी लिये आत्मज्ञानी ही श्रुतकेवली हैं या श्रुतकेवली आत्मज्ञानी हैं। शुद्ध आत्मामें पौद्गलिक कोई विकार व कोई संयोग नहीं है इसलिये वह रूपातीत अर्थात् अमूर्तीक है । ग्रंथकारने भायोंकी शुद्धिके लिये ही इस श्लोक में भी अपने ही आत्माके शुद्ध स्वभावका स्मरण किया है। श्लोक-नमामि सततं भक्त्या, अनादि सादि शुद्धये । प्रतिपूर्ण अथ शुद्धं, पंचदीप्ति नमाम्यहं ॥३॥ अन्नयार्थ-(अहं) मैं ( सततं) निरन्तर (भक्त्या) भक्तिपूर्वक (प्रतिपूर्ण) पूर्ण और (शुद्ध) शुद्ध (अर्थ) पदार्थको (पंचदीप्ति) जो पांच परमेष्ठी पदोंमें प्रकाशमान होरहा है। अनादि सादि शुद्धये) प्रवाहकी अपेक्षा अनादि, बंधने छूटनेकी अपेक्षा सादि ऐसे कमासे शुद्ध होनेके लिये ( नमामि नमामि) पार चार नमन करता हूं। विशेष-यहां भी अरहंत आदि पांचों पदोंके भीतर निश्चय नयसे जो एक रूप ही शुरआत्मा ४
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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