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तारणतरण
आत्मीक आनन्दके विलासी हैं ? इंद्रिय सुखसे अत्यन्त वैरागी हैं। निश्चयसे पांचों ही आत्माएं हैं। श्रावकाश इसलिये लोकालोक प्रकाशक हैं व तीन लोकमें भरे हुए जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन छ: द्रव्योंको व उनके गुणोंको व उनकी पर्यायोंको दीपकके प्रकाशकी तरह झलकानेवाले हैं। लोकमें १०० इन्द्र प्रसिद्ध हैं। भवनवासी देवोंके ४० इन्द्र, ब्यंतर देवोंके ३२ इन्द्र, स्वर्गवासी देवोंके २४ इंद्र, ज्योतिषी देवोंके २ इंद्र, चन्द्रमा और सूर्य, मनुष्यों में चक्रवर्ती, पशुओंमें अष्टापद ये सब अपने मन वचन कायसे इन पांच पदवी धारकोंको नमस्कार करते हैं। व्यवहार नयसे लोकालोक प्रकाशकपना अरहंत व सिडाके हैं। आचार्य उपाध्याय साधुको भेदविज्ञान है। श्रुतज्ञानके द्वारा लोकालोकके प्रकाशक हैं। केवलज्ञानके सन्मुख हैं । भावी नैगमनयसे ये तीनों भी परमात्मा कहे जासक्ते हैं। ग्रंथकी आदिमें इनको भावपूर्वक नमन करनेसे भक्तका भाव निर्मल होजाता है। उसके भावोंसे सांसारिक विकार निकल जाता है, परिणामोंकी विशुद्धि होती है, जिससे पापोंका क्षय होता है। पुण्यका लाभ होता है। इसी कारण सज्जन पुरुष किसी भी कार्यकी आदिमें इष्टदेवका स्मरण रूप मंगलाचरण करते हैं। जिससे कायमें विघ्नकारक कारण शमन होसकें।। भावार्थ-यहां इन्द्रादिसे पूज्य, सर्वज्ञमई परमात्माको नमस्कार किया गया है जो ॐ शब्दमें गर्भित है।
श्लोक-ऊं वं ह्रियं श्रियं चिंते, शुद्धसद्भावपूरितं ।
संपूर्ण सुयं रूपं, रूपातीत विंदसंयुतं ॥ २॥ ___ अन्वयार्थ—(शुद्धसद्भावपूरितं ) शुख सत्तामई भावसे भरे हुए ( संपूर्ण सुयं रूपं ) संपूर्ण श्रुत रूप (रूपातीत) अमूर्तीक ऐसे (बिंदुसंयुतं) बिंदु सहित (ऊं वं हियं श्रियं) ॐ, हीं, श्रींको (चिंते) चितवन करता हूँ।
विशेष-ॐ ह्रीं श्रीं ये तीन मंत्र पद हैं-ॐ में ऊपर लिखे प्रमाण पाच परमेष्ठी गर्भित हैं। हमें चौवीस तीर्थकर गर्भित हैं। ह से चार तथा र से दोका बोध होता है, बाएंसे लिखनेसे २४ का ज्ञान होता है। श्री लक्ष्मीको कहते हैं। आत्माके ज्ञान दशन सुख वीर्य आदि स्वभावको ही आत्माकी ४ लक्ष्मी कहते हैं । इस लक्ष्मीके धारी परमात्माको भी श्री कहते हैं।
ग्रंथकारका लक्ष्य एक शुद्ध आत्माकी ओर भक्तिपूर्ण है। इसलिये उसने शुद्ध आस्माको ही