SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तारणतरण शुद्ध स्वभावरूप ज्ञान है। रागद्वेषादि व ज्ञानावरणादि काँसे रहित शुद्ध हैं। तथा जो अनन्त दर्शन, *श्रावकाचार ४ अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य इन चार मुख्य गुणोंमें सदा परिणमन कर रहे हैं । इसमें अरहंत तथा सिद्ध दोनोंको स्मरण किया गया है। श्लोक-अनंत दर्शनं ज्ञानं, वीर्जनंत अमूर्तयं । विश्वलोकं सुयं रूपं, नमाम्यहं ध्रुवशाश्वतं ॥५॥ अन्वयार्थ (अहं) मैं (अनंत दर्शन) अनंत दर्शनमई (ज्ञानं ) अनंत ज्ञानमई (अमृतयं) अमूतीक (विश्वलोकं) सर्वको देखने वाले (सुयं रूपं) श्रुतज्ञान मई अर्थात् श्रुतज्ञानके कर्ता अथवा श्रुतज्ञान द्वारा अनु. भव करने योग्य (ध्रुव) अविनाशी (शास्वतं) अनंतकाल रहनेवाले परमात्माको (नमामि) नमस्कार करताहूं। विशेष-यहां भी परमात्माको नमस्कार करके व उनके गुणोंको स्मरण करके यह बताया है ४ कि वे ध्रुव हैं, कभी उनका क्षय नहीं होगा तथा शास्वत हैं अनंत काल तक एक रूप रहेंगे, उनमें १. कोई स्पर्श, रस, गंध, वर्ण जो पुद्गलके गुण हैं वे नहीं हैं इसीसे वे अमूर्तीक हैं। वे अनंत दर्शन व अनंत ज्ञानके धारी हैं। एक ही कालमें ही सामान्य विशेष रूप सर्व पदार्थों के ज्ञाता दृष्टा हैं स्व पर प्रकाश करते हुए व आत्मीक आनन्दका विलास करते हुए कभी भी उनको निर्बलता नहीं होती है। इसीसे वे अनंत वीर्य स्वरूप है। हम अल्पज्ञानी श्रुतज्ञानके द्वारा उनको पहचान करके व भेदज्ञान द्वारा परसे भिन्न अपने ही आत्माको शुद्ध द्रव्यरूप देख करके उनका अनुभव कर सक्ते हैं इसलिये वे श्रुतरूप हैं अथवा सम्पूर्ण श्रुतके कर्ता वे ही अरहंत भगवान हैं इसलिये श्रुतरूप हैं। वास्तवमें जो अपने आत्माको पहचानता है वही अरहंत तथा सिद्ध परमात्माको जान सक्ता है। जैसे कर्दमसे मिले हुए जल में भी जलका स्वभाव यदि देखा जाये तो निर्मल ही झलकता है उसी तरह शरीर व ४ कर्म मलके भीतर रहे हुए भी अपने आत्माको यदि आत्मारूप शुद्ध दृष्टिसे देखा जाये तो यही शुद्ध आत्मा या परमात्मा झलकता है। __ श्लोक-नमस्कृत्वा महावीरं, केवलं दृष्टि दृष्टितं । व्यक्तरूपं अरूपं च, शुद्धं सिद्धं नमाम्यहं ॥ ६ ॥ । ॥७॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy