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तारणतरण
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अन्वयार्थ - (अहं) मैं (महावीरं) चौवीसवें तीर्थंकर श्री महावीर भगवानको (नमस्कृत्वा) नमस्कार करके श्रावकाचार (केवलं दृष्टि दृष्टितं) केवलज्ञान रूपी नेत्रों के द्वारा प्रत्यक्ष देखे हुए (व्यक्तरूपं प्रकट प्रकाशमान आत्मस्वरूप धारी (च अरूपं और अमूर्तक (शुद्ध) व शुद्ध रागादि रहित सिद्धं) सिद्ध भगवानको (नमामि ) नमस्कार करता हूँ ।
विशेष—इस श्लोक में प्रथम तारणस्वामीने उस समय जिनका शासन वर्त रहा था ऐसे श्री महावीर भगवानको नमस्कार किया है। श्री महावीर स्वामीने अपनी दिव्यध्वनिसे मोक्षका यथार्थ स्वरुप व मोक्षका यथार्थ मार्ग झलकाया है जिसको श्रुतज्ञान द्वारा भव्य जीव जानकर व अपने आत्माका अनुभव करके परम आनन्द पाते हैं। उनका उपकार कभी भुलाने योग्य नहीं है । वे महावीर इसी लिये है कि राजकुमार होते हुए भी राज्य के प्रपंच में न फंसे । दीक्षा लेकर धर्मध्यान और शुक्लध्यानकी खड़गसे उन्होंने मोहरूपी वैरीको संहार किया फिर ज्ञानावरणादि तीन घातीय कमका नाश किया तथा कर्मविजयी हो अपना महावरिपना साक्षात् प्रगट किया ।
ग्रंथकर्ताका लक्ष्य पारवार शुद्ध आत्मा की तरफ जाता है इसलिये उन्होंने आठ कर्म रहित श्री सिद्ध भगवानको नमन किया है। जो सर्व परद्रव्योंसे व परद्रव्यके निमित्त से होनेवाले रागादि विकारोंसे व सर्व भेदोंसे रहित अभेद एक रूप शुद्ध हैं। यद्यपि वे पुगलकी तरह स्पर्श, रस, गंध, वर्ण घारी नहीं है इसलिये इन्द्रियोंके द्वारा देखने योग्य नहीं है । तथापि वे अनुभव करने वाले सम्यग्दृष्टी महात्माओंके अनुभवमें व्यक्तरूप हैं । श्रुतज्ञानके बलसे स्वसंवेदनमें आजाते हैं अथवा उनके आत्माका स्वरूप सर्व कर्मोंके आवरणोंसे रहित प्रकाशमान है। तथा उन सिद्ध भगवानका प्रत्यक्ष दर्शन केवलज्ञानरूपी नेत्रके ही द्वारा होता । पांच ज्ञानोंमें मतिश्रुत सो आत्मा आदि अमूर्तीक पदार्थोंको परोक्ष रूपसे जान सक्ते हैं अवधि व मनःपर्यय ज्ञान अमूर्तक शुद्ध पदार्थको जान नहीं सक्ते, मात्र केवलज्ञान में हो ऐसी शक्ति है जो आत्माको शुद्ध जैसाका तैसा प्रत्यक्ष देख सके । भावार्थ यह है कि जिस शुद्ध आत्माको केवलज्ञानी प्रत्यक्ष देखते हैं उसी शुद्ध आत्माको अल्पज्ञानी श्रुतज्ञानसे प्राप्त भेद विज्ञान रूपी नेत्र द्वारा देखें, जाने और उसका अनुभव पाकर स्वात्मानंद भोगें । शुद्धात्माका ध्यान, मनन, चितवन ही वीतरागताको बढ़ानेवाला है व रागद्वेष विभाव भावोंको मिटानेवाला है।
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