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वारणतरण
श्लोक-केवलीनंत रूपी च, सिद्धचक्रगणं नमः।
श्रावकाचार वोच्छामि त्रिविधं पात्रं, केवलि दृष्ट जिनागमं ॥७॥ साधओ साधुलोकेन, ग्रंथ चेल विमुक्त यं ।
रत्नत्रयं मयं शुद्धं, लोकालोक विलोकितं ॥८॥ अन्वयार्थ-( केवलीनंत रूपी च ) और अनंत केवर ज्ञानादि गुण स्वभावके धारी (सिद्धचक्रगणं) सिद्ध चक्रोंके समहको (नमः) नमस्कार हो। (त्रिविधं) तीन तरहके (पात्रं) धर्मके पात्र हैं उनका स्वरूप (वोच्छामि ) करुंगा। तीन हैं (केवलि) प्रथम तो केवली भगवान अरहंत सिद्ध, (दृष्ट मिनागमं) दूसरे केवली भगवान करके देखा हुआ व कहा हुआ जिन आगम, (साधुलोकेन) तीसरे साधु महाराज जिन्होंने ( ग्रंथ चेल विमुक्त यं) परिग्रह और वस्त्र रहित हो, (लोकालोक विलोकितं) लोक और अलोकको देखनेवाले (शुद्ध) शड वीतराग (रत्नत्रयं मयं) रत्नत्रयमई धर्मको (साधओ) साधन किया है।
विशेषार्थ-यहां फिर भी ग्रंथकारने भकिसे भरपूर हो अनत ज्ञान सुख वीर्यादि पवित्र गुणधारी अनंत सिद्धाको नमस्कार किया है । जैन विद्धांतका यह भाव है कि जो कोई आत्मा कर्म बंधनोंको काटकर व सर्व विकारोंसे छूटकर शुद्ध आत्मा होजाता है-पुद्गल के बंधसे रहित हो केवल आत्मद्रव्य मात्र रह जाता है । मल रहित सुवर्णके समान स्वच्छ होजाता है वही परमात्मा आराधन करने योग्य होता है। अनत जगतमें ऐसे अनंत जीव सिद्ध परमात्मा होचुके हैं। वे सब गुणों में समान होनेपर भी सत्ताकी अपेक्षा व अपने अपने पृथक् २ आत्मप्रदेशों की अपेक्षा भिन्न हैं। मुक्त होनेपर वे एक दूसरे में समाकर अपनी सत्ता नहीं खो बैठते हैं । इसतरह अनंत सत्ताधारी सिद्धाको यहां नमन किया गया है। फिर ग्रंथकार यह प्रतिज्ञा करते हैं कि मैं पहले तीन तरहके धर्मधारी पात्रीका स्वरूप कहूंगा । पात्र वरतनको कहते हैं । देव धर्मके पात्र हैं। शास्त्र धर्म का पात्र है क्योंकि उसमें धर्मका वर्णन है। गुरु धर्मके पात्र हैं क्योंकि वे धर्मका साधन करते हैं। केवलज्ञानी अरहंत व १ सिद्ध देव धर्म पात्र हैं। अरहतका कहा हुआ जिन आगम शास्त्र धर्म पात्र है। सर्व परिग्रह रहित वेव रहित अचेल काया निग्रंथ साधु जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रमई धर्मका साधन