SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 836
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मो. माहोय । तैसें चास्त्रि दोग्य प्रकार है-एक सराग है एक वीतराग है। तहां ऐसा जानना राग प्रकाश है, सो चारित्रका स्वरूप नाहीं । चारित्रविषै दोष है । मर केई ज्ञानी प्रशस्तरागसहित चारित्र धारे हे । तिनकों देखि कोई अज्ञानी प्रशस्तरागहीकों चारित्र मानि संग्रह करे, तो वृ-14 था खेदखिन्न ही होय । यहां कोऊ कहैगा-पापक्रिया करसै तीघ्ररागादिक होते थे, अब इन | क्रियानिकों करते मंदराग भयो । तातै जेताअंश रागभाव घट्या तितना अंशां तो चारित्र कहौ । जेता अंश राग रह्या, तेता अंश राग कहौ । ऐसें याकै सरागचारित्र संभव है । ताका समाधान. जो तत्त्वज्ञानपूर्वक ऐसे होय, तो कहो ही जैसे ही है । तत्त्वज्ञानविना उत्कृष्ट आचरण | होते भी असंयम ही नान पावै है ।जाते रागभाव करनेका अभिप्राय नाहीं मिटे है। सोई । दिखाईए है द्रव्यलिंगी मुनि राज्यादिककों छोड़ि निर्यथ हो है,अठाईस मूलगुणनिको पाले है, उग्रोग्र अनशनादि घनातपकर है, नुधादिक बाईस परीषहसहै है,शरीरका खंडरभएभी व्यत्र न हो | है,बतभंगके कारण अनेक मिलें,तौभी दृढ़ रहै है, कोईसेती क्रोध न करै है, ऐसासाधनकामानन | करै है । ऐसे सधानविषै।कोई कपटाई नाहीं है,इससाधनकरि इसलोकपरलोकके विषयसुखकों न चाहै है । ऐसी याकी दशा भई है । जो ऐसी दशान होय, तो अवेयकपर्यंत कैसे पहुंचे।
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy