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________________ 100002 मो.मा. IN परंतु याकौं मिथ्यादृष्टी असंयमी ही शास्त्रविषे कह्या । सो ताका कारण यह है- याकै तत्यप्रकाश निका श्रद्धान ज्ञान सांचा भया नहीं। पूर्व वर्णन किया, वैसे तत्वनिका श्रद्धान भान भया है। तिस ही अभिप्रायते सर्व साधन कर है । सो इन साधनिका अभिप्रायकी परंपराको वि. चारें कषायनिका अभिप्राय आवै है । सो कैसे, सो सुबहु___ यह पापके कारण रागादिकों तो हेय जानि छोर है, परन्तु पुण्यका कारण प्रशस्तरागों उपादेय मानै है । ताके वधनेका उपाय करें है। सो प्रशस्तराग भी तो कषाय है। कषायकों उपादेय मान्या, तब कषाय करनेका ही श्रद्धान रह्या । अप्रशस्त परद्रव्यनिसौं द्वेष-|| करि प्रशस्त परद्रव्यनिविषे राग करनेका अभिप्राय भया। किछु परद्रव्यनिविषे साम्यभाव-11 रूप अभिप्राय न भया । यहां प्रश्न-जो सम्यम्दृष्टी भी तौ प्रशस्तरागका उपाय राव है। ताका उत्तर जैसे काहूकै बहुत दंड होताथा, सोवह थोरा दंड देनेका उपाय राखै है । अर थोरा दंड दिये हर्ष भी माने है । परंतु श्रद्धानविणे दंड देना, अनिष्ट ही मासै है । वैसे सम्यदृष्टीकै पापरूप बहुत कषाय होता था, सो यह पुण्यरूप थोरा कषायकरनेका उपाय सखे है । अर थोरा कपाय भए हर्ष भी मान्ने है । परंतु श्रद्धानवि कषायकों हेय ही मानै है । बहुरि जैसे कोऊ कुमाईका कारण जानि व्यापारादिकका उपाय राखै है । उपाय बनि आए हर्ष मम्मे है । పండం-10000000000000000000నిజాం నిరంఘం నిండా
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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