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मो.मा.
प्रकाश
मानना चेतनाही के हो है सो चेतना ब्रह्मका स्वरूप ठहस्था । अर स्वभाव स्वभावीकै तादात्म्यसंबंध है । तहां दास र स्वामीका संबंध कैसे बने ? दास स्वामीका संबंध तौ भिन्नपदार्थ होय तब ही बने । बहुरि जो यह चेतना इसीही की है तो यह अपनी चेतनाका धनी जुदा पदार्थ ठहरथा तो मैं अंश हौं वा 'जो तू है सो मैं हूं' ऐसा कहना झूठा भया । बहुरि जो भक्ति करनहारा जड़ है, तो जड़कै बुद्धिका होना असंभव है ऐसी बुद्धि कैसें भई । तातें' 'मैं दास हौं' ऐसा कहना तब ही बने है जब जुदा पदार्थ होय || घर 'तेरा में अंश हौं' ऐसा कहना बने ही नाहीं । जातै 'तू' अर । 'मैं' ऐसा तौ भिन्न होय तब ही बने । सो अंश अंशी भिन्न कैसे होंय । अंशी तो कोई जुदा वस्तु है नाहीं, अंशनिका समुदाय सो ही अंशी है । अर 'तू है सो मैं हूं' ऐसा वचन ही विरुद्ध है । एक पदार्थविषै आप भी माने अर पर भी मानै सो कैसे संभवे । तातै भ्रम छोड़ि निर्णय करना । बहुरि केई नाम ही जपै हैं । सो जाका नाम जपे ताका स्वरूप पहचाने बिना केवल नामही का जपना कैसें कार्यकारी होय । जो तू कहेगा नामहीका अतिशय है तौ जो नाम ईश्वरका है सो ही नाम किसी पापीपुरुषका धरया तहां दोऊनिका नाम उच्चारणविषै फलकी समानता होय सो कैसे बने ? तातैं स्वरूपका निर्णयकरि पीछें भक्तिकरने योग्य होय! ताकी भक्ति करनी । ऐसें निर्गुणभक्तिका स्वरूप दिखाया ।
बहुरि जहां काम क्रोधादिकरि निपजे कार्यनिका वर्णनकरि स्तुत्यादि करिए ताक
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