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________________ मो.मा. प्रकाश कहै सो प्रत्यक्ष विरुद्ध है तैसें हिंसा किए धर्म अर कार्यसिद्धि कहना प्रत्यक्ष विरुद्ध है । परन्तु जिनिकी हिंसा करनी कही, तिनिकी तौ किछू शक्ति नाहीं, और उनकी काहूकों पीरि नाहीं । जो किसी शक्तिवानका इष्टका होम करना ठहराया होता, तौ ठीक पड़ता ।। पापका भय नाहीं, तातें दुर्बलका घातक होय अपने लोभके अर्थ अपना वा अन्यका बुरा करनेविषै तत्पर भये हैं । बहुरि मोक्षमार्ग भक्तियोग ज्ञानयोगकरि दोय प्रकार प्ररूपै हैं । तहाँ प्रथम ही भक्तियोगकरि मोक्षमार्ग कहै हैं, ताका स्वरूप कहिए है, - - 1 तहां भक्ति निर्गुणसगुण भेदकरि दोयप्रकार कहे हैं । तहां अद्वैत परब्रह्म की भक्ति करनी सो निर्गुणभक्ति है । सो ऐसें कहैं हैं, तुम निराकार हो, निरंजन हो, मन बचन 'अगोचर हो, अपार हो, सर्वव्यापी हो, एक हो, सर्वके प्रतिपालक हो, अधमउधारक हो, सर्वके | कर्त्ताहर्त्ता हो, इत्यादि विशेषस्पनिकरि गुण गावै हैं । सो इनविषे केई तौ निराकारादि विशेषण हैं। सो अभावरूप हैं, तिनिकौं सर्वथा मानें प्रभाव ही भासे । जातें आकारादि वस्तु बिना कैसें | भासे । बहुरि केई सर्वव्यापी आदि विशेषण असंभव हैं सो तिनिका असंभवपना पूर्वे दिखाया ही है । बहुरि ऐसा कहैं— जीवबुद्धिकरि मैं तिहारा दास हौं, शास्त्रदृष्टिकरि तिहारा अंश हौं, | तत्त्वबुद्धिकरि 'तू ही मैं हूं' सो ए तीनों ही भ्रम हैं । यह भक्तिकरनहारा चेतन है कि जड़ है । तहां जो चेतन है तौ चेतना | ब्रह्मकी है कि इसही की है ? जो ब्रह्मकी है तो में दास हौं ऐसा १७३
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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