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________________ तारणतरण ॥१०६॥ कहा जा चुका है। परिग्रह आरंभ रहित आत्मध्यानी वैरागी अनेकांत मनके ज्ञाता निर्बंध साधु दी सुगुरु हैं । इनके सिवाय जो परिग्रहधाते, विषयानुरागमें व मान लोभमाना कायमें अपुरक हैं, जिनको शुद्ध आत्मीक तत्वका अनुभव नहीं है न द्रव्योंका व तत्वोंका व पदार्थों का यथार्थ ज्ञान है, जो स्वयं मिथ्याती हैं व मिथ्यात्वका ही उपदेश देते हैं, जो मायाचारसे परिपूर्ण होते हुए अपना स्वार्थ साधन करते हैं, जो असत्य है, एकांत है, अवस्तु है उसे सत्य कहते हैं, जैन धर्मका भीतर से द्रोह रखते हैं, वे जिन वचनका लोप हो ऐसा उपदेश करते वीतराग विज्ञानमय धर्मको न तो वे स्वयं पालते हैं न दूसरोंको उस मार्गपर लेजाते हैं, वे कुगुरु पाषाणकी नात्र समान हैं, स्वयं संसार में डूबते व दूसरों को डुबाते हैं । संसार में बहुतसी रागवर्द्धक हिंसा पोषक पशुओंकी बलि आदि क्रिवाएं व मृढतासे भरा हुआ पूजा पाठ कुगुरुओंने ऐसा चला दिया है जिसके द्वारा वे द्रव्यके कमानेका उपाय कर लेते । उस द्रव्यसे मनमाने विषयसेवन करते हैं, महन्त बनकर रहते हैं, न्याय अन्याय, भक्षा अभ क्ष्यका विचार छोडकर वर्तन करते हैं, अपनेको साधु, गुरु, गुसाई व महन्त कहते हुए भी राजाओं से भी अधिक भोगविलास करते हैं, भक्तोंको नाना प्रकार लौकिक लोभ दिखाकर उनसे धन संग्रह करते हैं । जैसे वे कुगुरु राग रंगसे लिप्त हैं वैसे वे पूज्य परमात्मा ईश्वर के भीतर भी रागभावकी कल्पना कर लेते हैं । वीतराग विज्ञानमय जैन मार्गका खण्डन करते हैं । अनेकांतको संशयवाद बताते हैं । परम निस्पृही जिनदेव के वीतराग स्वरूपकी निंदा करते हैं। ऐसे कुगुरुओं की भक्ति अशुद्ध कुगुरु भक्ति है वह न करनी चाहिये । अथवा जो अपनेको जैन गुरु मानके परिग्रह रखते हैं, आरम्भ करते हैं, बाहरी व्यवहारपूजा-पाठ कराने में लीन हैं, कभी शुद्ध आत्मीक तत्वका न स्वयं मनन करते हैं न भक्तोंको उपदेश देते हैं, मात्र कथाएँ सुनाकर मनको रंजायमान करके अपनी मान्यता कराते हैं, वे भी कुगुरु ही हैं, उनकी भक्ति भी अशुद्ध गुरुभक्ति है । अथवा जो जैनका साधु चारित्र पालते हुए नग्न दिगम्बर रहते हुए, स्पाति लाभ पूजाकी चाह वश वर्तन करते हैं, जैन भेष होकर भी ईर्ष्या समिति नहीं पालते हैं भाषा समिति नहीं पालते हैं, उद्दिष्ट भोजन कर लेते हैं, शीत उष्ण नग्नादि परीषहोंके जीतने में कायर हैं । न स्वयं भावाभाव ॥१०६॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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