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________________ भरणवरण रामाकर ०६॥ (मदेवं देव मान्यते) अदेवको देव मान लेता है(साबै येन प्रपंच कृतं)साथ वह प्रपंच करता है (मान्यते मिथ्याष्टितं) जो ऐसा माने यह मिथ्यादृष्टीहै। विचार्य-जिनमें देवपना बिलकुल नहीं है ऐसे अदेवोंको जो देव मानके पूजते हैं वे वास्तव में संसारकी वासनाओंमें लिसोते हैं। उनको पदि किसीने कह दिया कि अमुक देवकी मान्यता करनेसे धन लाभ होगा, पुत्र लाभ होगा, यश लाभ होगा, जयका लाभ होगा तो वे अज्ञानी इस पातका विना विचार किये कि इनमें देवके लक्षण सर्वज्ञ वीतरागपना मिलते हैं या नहीं, लोभके वशीभूत हो चाहे जिस कुदेवको या अदेवको पूजने लग जाते हैं, उनकी यह मूढभक्ति मिथ्यास्वरूप है।मायाचार रूप यों है कि कपटसे भरी हुई है। इस मूढभक्तिके कारण उसको अनेक प्रपंच रचना पडते हैं, अनेक आडम्बर करने पड़ते हैं। इस प्रकारकी कुदेवकी या अदेवकी पूजा भक्तिसे अंतरंग मिथ्यात्व दृढ होता है। मिथ्याहष्टी ऐसी अशुद्ध देवकी भक्ति किया करता है। इससे रागदेष मोहको बडा ही लेता है, घोर पाप बांधकर दुर्गतिका पात्र होता है। श्लोक-ग्रन्थं राग संयुक्तं, कषायं रमते सदा । शुद्ध तवं न जानते, ते कुगुरुं गुरु मान्यते ॥ ३१२ ॥ मिथ्या माया प्रोक्तं च, असत्यं सत्य उच्यते । जिनद्रोही वच लोपंते, कुगुरुं दुर्गति भाजनं ॥ ३१३॥ __ मन्वयार्थ-(रागसंयुक्तं मन्वं) राग सहित धन धान्यादि परिग्रहमें (कषाय) व क्रोधादि कषायों में जो (सदा रमते) सदा रमते हैं (शुद्ध तत्वं न जानते) वे शुद्ध आत्मीक तत्वको नहीं पहचानते हैं (ते कुगुरुं) वे कुगुरु हैं उनको (गुरु मान्यते) मिथ्या श्रद्धानी मूढबुद्धि गुरु मान लेता है। (मिथ्या माया प्रोक्तं च ) वे गुरु मिथ्यात्व व मायाचारसे पूर्ण उपदेश देते हैं। (असत्यं सत्य उच्यते ) जो असत्य है उसे सत्य १ करते हैं। (जिनद्रोही वच कोपते) वे जिनेन्द्र भगवानके मतके द्रोही हैं। तथा जिन वचनका लोप करके कथन करते हैं (कुगुरुं दुर्गतिमान) वे कुशुरू दुर्गतिके पात्र हैं। विशेषार्ष-यहां अशुखकुगुरु भकिको बताया गया है। कुगुरुका स्वरूप पहले बहुत विस्तारसे
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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