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________________ वारणवरण ॥३०४॥ ही देवको जाने । जो ( अदेवं देव उच्यते) अदेवको देव कहता है वह (अनंत क्षेत्र हिंडते ) अनंत क्षेत्र परावर्तन करता है । विशेषार्थ - अब यहां अशुद्ध षट्कर्मका विस्तार कहते हैं। पहले देव पूजा है । "अशुद्ध देव पूजा वह है जो मंदिर में ही देव बिराजित हैं ऐसा जाने परन्तु यह न जाने कि मंदिरमें देवकी मूर्ति मात्र स्थापना रूप है, देवका स्वरूप बतानेवाली है उसमें साक्षात् देव नहीं है । साक्षात् देव तो सिद्ध भगवान मोक्ष क्षेत्र में है या अपना आत्मारूपी देव शुद्ध निश्चपनय से शुद्ध परमातम देव है । जैसे किसी बादशाहकी तसबीर मात्र इसलिये होती है कि उससे बादशाह के स्वरूपका ज्ञान हो तथा उसका आदर वह बादशाहका आदर व उसका निरादर बादशाहका निरादर समझा जाता है । कोई मूर्ख यह भले ही समझे कि चित्र में बादशाह साक्षात् है, परन्तु बुद्धिमान ऐसा कभी नहीं समझेगा । वह उसे बादशाहकी प्रतिमूर्ति मात्र समझेगा । इसी तरह भगवान की मूर्तिको साक्षात् भगवान समझना मूर्खता है । वह भगवानकी स्थापना है जिसमें भगवान के ध्यानमय रूपकी कल्पना की गई है । उस रूपके देखनेसे ध्यानमय स्वरूपकी याद आती है व उसके द्वारा की गई भक्ति भगवानकी ही भक्ति समझी जाती है । उसे कोई बुद्धिमान साक्षात् महावीर भगवान नहीं मान मक्ता, मात्र उनकी स्थापना उनके स्वरूपकी द्योतक है। जो कोई मोक्ष प्राप्त आत्माको व अपने आत्माके असली स्वभावको जो साक्षात् देव है उसको न समझकर मात्र मूर्तिको हो भगवान मानके पूजे तो उसकी मूढता ही कही जायगी । वह कभी शुद्ध तत्वपर नहीं पहुँचेगा । इसी तरह जो अदेव हैं जिनका स्वरूप पहले कहा जाचुका है। जैसे गौ, घोडा, हाथी, पीपल, वर्गत आदि, उनको देव मानकर पूजना अशुद्ध देवभक्ति है। तो मिथ्यात्वी जीव ऐसी मूढ भक्तिमें लगे हैं वे ज्ञानावरणीय कर्मका विशेष बन्ध कर अनंत दफे क्षेत्र परिवर्तन में जन्म धार धार करके मरेंगे और जीवन के कष्ट उठाएँगे । श्लोक - मिथ्या माया मूढदृष्टी च, अदेवं देव मानते । प्रपंचं येन कृतं सार्द्ध, मान्यते मिथ्यादृष्टितं ॥ ३११ ॥ अन्वयार्थ–{ मिथ्या माया मृढढष्टी च ) जा मिथ्यात्वी है, मायाचारी है, मूढ श्रद्धा सहित हैं वह श्रावकाचार ॥२०४
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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