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प्रचार
वारणतरण इच्छा रहती है कि आगामी इस लोक व परलोकमें मनोज्ञ इन्द्रियों के भोगने योग्य पदार्थ प्राप्त
हो। इसतरह निदान आर्तध्यान रहता है। जीवदया न होनेसे प्रमाद सहित आचरण करते हुए या १६॥
अपना कोई मनोरथ परकी हिंसा करके या परको बाधा देकर भी सिद्ध होता जाने तो गुरुके हिंसाV नंदी रौद्रध्यान होजाता है। अपना स्वार्थ सिद्ध करनेको मिथ्या वचन बोलते हुए व उससे काम सिद्ध
होते हुए मृषानंदी रौद्रध्यान होजाता है। कुगुरु बहुधा गुप्त रीतिसे इंद्रियोंके विषय सेवन करते हैं
इससे चौर्यानंदी रौद्रध्यान होजाता है। परिग्रहमें अनुरागी, मोही होनेसे अपने पास परिग्रह बढ़ता 4 हो व दूसरोंके धनादिकी वृद्धि होरही है ऐसा देखकर परिग्रहानंद रौद्रध्यान होजाता है।
कुगुरु साधुओंका वचन स्वार्थको लिये हुए अशुभ ही होता है। उनका उपदेश जीवोंको १ Y मोक्षमार्गमें लगानेके स्थान में संसारमार्गमें लगा देता है । क्रोधादि चारों कषायोंकी प्रबलता इनके होती है। ऐसे गुरु कुगुरु हैं।। ___ श्लोक-कुगुरु पारधी सदृशं, संसार बन आश्रयं ।
लोक मृढस्य जीवस्य, अधर्म, पासिबंधनं ॥ ८२ ॥ अन्वयार्थ (कुगुरु ) खोटे गुरु ( पारधी) पक्षी पकडनेवालेके ( सदृशं ) समान होते हैं जो ( संसार बन आश्रयं ) संसार रूपी वनमें आश्रय करनेवाले (लोक मूढस्य ) लोक मूढतामें फँसे (भीवस्य) जीवोंको (अधर्म ) मिथ्या धर्मरूपी (पासिबंधनं ) जाल में फाँसकर बांध लेते हैं।
विशेषार्थ-जैसे पक्षी पकडनेवाले चिडीमार जंगल में पक्षियोंको पकडनेके लिये जाल बिछाकर , उसमें उनको खींचनेवाला अन्नादि पदार्थ डाल देते हैं, उसके मोहसे पक्षीगण अपना स्वार्थ सधेगा
इस भावसे विश्वास करके जालके भीतर आजाते हैं और तुरन्त फंस जाते हैं, निकल नहीं सक्तेबन्धनमें पडकर पराधीन हो कष्ट सहते हैं। इसी तरह कुगुरु संसार वनमें घूमनेवाले भ्रमनेवाले अज्ञानी प्राणियोंको अधर्म रूपी जाल में फंसानेके लिये मीठे २ वचनोंसे संसार वडक, विषय कषाय पोषक उपदेश देकर उनको फंसा लेते हैं। वे और भी पराधीन हो संसार में दीर्घकाल घूमकर कष्ट जठानेवाले होजाते हैं। यदि कोई ऐसा उपदेश करदे कि पशुओंकी बलि देवताओंको चढानेसे