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________________ वारणतरण ॥ १७९॥ विशेषार्थ – धर्मका क्या स्वरूप है सो ऊपर कहा है, शुद्ध आत्माके स्वरूपका ध्यान करनी यह असली धर्मध्यान है । जब ध्यानमें उपयोग न लगे तब तीन लोकके स्वरूपका विचारना भी धर्मध्यान है । जैसे यह सोचना कि अधोलोक में सात नरक हैं जहां तीव्र पापके फलसे उपजता है । पहली रत्नप्रभा पृथ्वी के खर भाग व पंक भागमें भवनवासी तथा व्यंतरोंके निवासस्थान हैं । मध्यलोकमें असंख्यात द्वीप समुद्र एक दूसरेको वेढे हुए हैं व विस्तार में एक दूसरेसे दूने २ हैं । इनमें से जंबूद्वीप, धातुक खंड तथा पुष्करार्द्ध इन ढाई द्वीपको मानवलोग कहते हैं, यहीं से मानव धर्म साधन कर मोक्ष या स्वर्ग जाते हैं । असंख्यात द्वीप समुद्रोंमें युगलिये पशु पैदा होते हैं, वहीं जघन्य भोगभूमि है | विदेह क्षेत्रों में सदा ही चौथा काल रहता है। वहां मोक्ष होना सदा चलता रहता है । ज्योतिष पटल मध्यलोक की ही हृद्दमें है । भूमिसे ७९० योजन ऊपर जाकर है। ऊर्ध्व लोक में १६ स्वर्ग, नौ ग्रैवेयक, नौ अनुदिश, पांच अनुत्तर विमान फिर सिद्धक्षेत्र है, जहां कमसे मुक्त होकर शरीर रहित परमात्मा विराजमान रहते हैं । सर्वत्र लोकमें स्थावर जीव भरे हैं। त्रस जीव लोक के मध्य त्रस नाड़ीमें ही है । इस चतुर गतिमय संसारमें जीव पाप पुण्यके द्वारा दुःख व सुख उठाते हैं जो शुद्ध होते हैं वे मुक्ति में विराजते हैं, इस तरह तीन लोकका स्वरूप विचारना धर्मध्यान है । लोकां लोकके स्वरूप में जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल और आकाश इन छः अविनाशी मूल द्रव्योंका विचार करना चाहिये जिनसे यह लोकाकाश अलोकाकाश, नाम पड़ा है। लोका की, शमें छहों द्रव्य हैं, बाहर मात्र आकाश है। छः द्रव्योंकी पर्यायें स्वाभाविक या जीव पुद्गलों की वैभ विक पर्यायें भी हुआ करती हैं। पर्यायों की अपेक्षा यह विश्व अनित्य है परन्तु द्रव्यकी अपेक्षा नित्य है । इसे न किसीने बनाया न इसका सर्वथा नाश होगा। यह अनादि अनंत है। मिथ्या मति, श्रुत अवधिपना जहां नहीं है वहीं धर्म है क्योंकि वहीं सम्यग्दर्शन है। वास्तव में सम्यग्दर्शन ही धर्मका मुख्य अंग है। जहां परिणाममें न मिध्यात्व हो और न माया शल्य हो, मात्र j आत्मोन्नति के लिये सरलभावसे शुद्धात्मतत्व का अनुभव हो व उसके अनुकूल द्रव्योंका, तत्वोंका, पदार्थोंका विचार हो, कर्मके उदय व बंधका विचार हो, वह सब धर्मध्यान है यही करने योग्य है । श्रावकाचार ॥ १०९
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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