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श्रावकाचार
धारणतरणY : विशेषार्थ-यहां धर्मध्यानके सेवनकी प्रेरणा की है, यद्यपि धर्मध्वान वास्तव में अपो हो शुद्ध ॥१४॥
9. आत्मामें स्थिति स्वरूप है, अपने आत्माका निर्विकल्प भाव है तथापि शिष्यको उसका अभ्यास
करने के लिये निहीं शब्दोंका आलम्बन लेना पडता है। उसके लिये यहां कहा है कि वे तीन पद हैं । ॐ ही, श्री। पहले बताया जाचुका है कि-ॐ मैं अरइंतादि पांच परमेष्ठी गर्भित हैं, हमें चौवीस तार्यकर गर्भित हैं तथा श्रीं में परमैश्वर्य युक्त अरहंत व सिद्ध परमेष्ठी गर्भित हैं या किसी अपेक्षा अन्य तीन परमेष्ठी गर्भित हैं। इन तीनों पदोंका जो भाव है वह एक में भलेप्रकार गर्भित है। अर्थात् चाहे तीनों पदोंका अलग २ ध्यान करो या तीनोंको मिलाकर करो या मात्र एक ॐ हीका करो सर्व एकहीभावको झलकानेवाले हैं । निश्चयसे शुद्ध आत्माही अरहंत है। शुद्ध आत्मा ही सिद्ध है, शुद्ध आत्मा ही आचार्य है, शुद्ध आत्मा ही उपाध्याय है, शुद्ध आत्मा ही साधु है, शुद्ध आत्मा ही श्री ऋषभादि महावीर पर्यंत चौवीस तीर्थकर हैं। ध्याताको अपना लक्ष्य शुद्ध आत्माकीतरफरखके मनकी चंचलताको मेटने के लिये, इन पदोंका आलम्बन लेकर इनको या तो जपना चाहिये या हृदयस्थानमें या दो भौंहोंके मध्य में या नाभिकमलमें या मस्तकपर या नाशिकाकी नोकपर विराजमान करके इनको ज्योति-स्वरूप चमकता हुआ देखना चाहिये। फिर उसके द्वारा शुद्ध आत्ता पर पहुंच जाना
चाहिये। वहांसे उपयोग हटे तब फिर इसी पदको देखना चाहिये। कभी कभी पांच परमेष्ठीके * २४ तीर्थंकरोंके गुणोंको विचारते रहना चाहिये । शुद्धात्मामें जब उपयोग न रमे तब ये सब कार्य
आलंबनरूप हैं। पुन: पुन: आलम्बन लेते हुए पुनः पुनः शुखात्मामें पहुंच जाना चाहिये । इसी ४ रीतिसे आत्माका ध्यान करना चाहिये। यही धर्मध्यान है।
श्लोक-धर्मध्यानं त्रिलोकं च, लोकालोकं च शाश्वतं ।
कुज्ञानं त्रिविनिर्मुक्तं, मिथ्या माया न दिष्टते ॥१७१॥ अन्वयार्थ-(धर्मध्यानं ) धर्म ध्यान (त्रिलोकं च ) तीन लोकका स्वरूप विचारना है (लोकालोकं च शाश्वत व अविनाशी लोकालोकका स्वरूप विचारना है (कुज्ञानं त्रिविनिमुक्त) तीन मिथ्याज्ञानसे रहित है (मिथ्या माया न विष्टते) वहां मिथ्यात्व व मायाचार नहीं दिखलाई पड़ते हैं।