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विशेषार्थ-यहां फिर दह किया है कि धर्म कहीं बाहर नहीं है न किसी चैत्यालय में हैन श्रावकाचार मान किसी तीर्थमें है न किसी गुरुके पाससे मिलता है न क्रियाकांडमें है।धर्म तो हरएक
आत्माके भीतर है। हरएक आत्माका अपना निज स्वभाव है। मेद दृष्टिसे देखें या कहें तो उसे सम्यग्दर्शन ज्ञाम चारित्रमय कहेंगे परन्तु अभेद नयसे देखें या कहें तो यह मात्र एक स्वानुभवरूप या ज्ञानचेतना मात्र है। उस धर्ममें राग द्वेषादिकी व संकल्प विकल्पकी कोई उपाधि नहीं हैं। .
जो कोई तत्वज्ञानी निश्चिन्त होकर सर्व चिन्ताओंको त्यागकर एक अपने शुद्ध आत्माको शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे देखता है, जानता है, अनुभवता है, तदुरूप होता है, तन्मय होजाता है, अतीन्द्रिय आनन्दके स्वादमें मग्न होजाता है वही अपने भीतर अपने धर्मको पाता है। यह धर्म वास्तवमें वचन अगोचर है । मनसे भी अगोचर है। जब कार्य भी थिर रहता है, वचन भी बंद रहता है, मनकी चंचलता भ मिट जाती है तब वह आत्मधर्म इन मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति से बाहर होनेपर ही अनुभवमें आता है। चैत्यालयका सम्बन्ध व भक्ति, शास्त्रका पढना, तीर्थमें जाना,
गुरुकी संगति, व्यवहार श्रावक व मुनिकी क्रिया मात्र मनको बाहरी प्रपंचजालसे बचानेको निमित्त 4 है। इसलिये उनका संयोग हितकारी है । परंतु जो कोई इनहीको असली धर्म मानले और शुद्ध
आत्माके तत्वको न पहचाने उसके लिये यहां कहा गया है कि असली धर्म तो आत्माका अपना स्वभाव है। इसतरफ लक्ष्य देनेसे ही मुमुक्षुको सच्चा मार्ग हाथ लगेगा और वह वास्तविक धर्मरत्न को पाकर कृतार्थ होजायगा । उसका जन्म जरा मरणरूपी रोगको मेटने के लिये व कर्मका मैल धोने के लिये यही एक अद्भुत गुणकारी औषधि है । इसीका पान या सेवन सदा सुखकारी है।
श्लोक-धर्मध्यानं य आराध्यं, ॐकारे च सुस्थितं ।
ह्रींकारे श्रींकारे च, त्रि ॐकारे च सस्थितं ॥ १७० ॥ अन्वयार्थ (धर्मध्यानं च ) धर्मध्यानका ही ( आराध्य ) आराधन करने योग्य है (ॐकारे च ) , ४ वह ॐकारके भीतर (हींकारे ) ह्रींकारके भीतर (श्रींकारे घ) तथा श्रीकारके भीतर ( सुस्थितं ) भले. प्रकार स्थित है (त्रि) ये तीनों (ॐवकारे च) ॐकारमें ही ( सुस्थितं ) भलेप्रकार प्राप्त हैं।
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