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________________ श्रावकाचार बारणतरण कर्म चेतना व कर्मफलचेतनाके स्वादसे रहित है।रागद्वेषरूप होकर कार्य करते हुए यहअनुभवना कि ॥१७॥ मैं काम करता है यह कर्म चेतना है। काँका फल होते हुए यह अनुभवनाकि मैं सुखी हूं,या दुखी हूं कर्मफल चेतना है। यह अशुद्ध आत्मामें कभी पाई जाती हैं । आत्मा स्वभावसे ज्ञान चेतनामई है। शुद्ध द्रव्यार्थिक नय उस नय या अपेक्षा या दृष्टिको कहते हैं जो शुद्ध द्रव्यको देखती है। एक ही द्रव्यको परसे भिन्न देखता है। इस नयके द्वारा देखते हुए आत्मा भी कर्मोंसे रहित दीखता है व उसका स्वभाव या धर्म भी कमाँसे रहित दीखता है। कर्म तीन प्रकार हैं। भाव कर्म-रागद्वेषादि मलीन भाव है। द्रव्य कर्म-ज्ञानावरणादि आठ कर्म है। नोकर्म शरीरादि हैं। ये सब ही आत्माके स्वभावमें नहीं हैं, इसलिये शुद्ध धर्म आत्मारूप ही है, आत्मका निजस्वभाव है, यह अभेद रत्नत्रय स्वरूप है। अपने आत्माको शुद्ध द्रव्यकी अपेक्षा शुद्ध है ऐसा निश्चय करना सम्यग्दर्शन है ऐसा संशयादि दोष रहित जानना सम्यग्ज्ञान है तथा इसी में थिर होकर स्वाद लेना सम्मग्चारित्र है अर्थात् एक शुडाम्मानुभा या स्वानुभव, या स्वसमय या आत्मध्यान ही शुर धर्म है-मोक्षका साक्षात् उपाय है। श्री देवसेनाचार्य तत्वसारमें कहते हैं को खल सुद्धो भावो सा अप्पणितं च दंसणं गाणं | चरणपि तं च भाणयं सा सुद्धा चेयणा अहवा ॥ ८॥ अबियपं तच्च तं सारं मोक्खकारणं तं च । त णाऊग विसुद्धं शायह होऊग जिग्गंथो ॥९॥ भावार्थ-मोनिश्वयसे शुद्ध आत्माका भाव है वह आत्मरूप है वही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान र व सम्यक्चारित्र कहा गया है-उसीको शुद्ध चेतना कहते हैं। वही निर्विकल्प तस्व है, वही सार है, वही मोक्षका कारण है उसीको जानकरके व उसीके शुद्ध स्वरूपको निग्रंथ होकरके, सर्वसे ममता त्याग करके ध्याओ। श्लोक-धर्म च आत्मधर्म च, रत्नत्रयमयं सदा । चेतना लक्षणो यस्य, तत् धर्म कर्म विवर्जित ॥ १६९ ॥ अन्वयार्थ (धर्म च ) धर्म तो ( आत्म धर्म च ) आत्माका स्वभाव ही है। वह ( सदा ) तीनों कालोंमें (रत्नत्रयमय ) रत्नत्रयमई है ( यस्य लक्षणः ) जिसका लक्षण (चेतना) चेतना या स्वानुभव है (तत् धर्म ) वह धर्म ( कर्मविवर्जित) सर्व कर्मकी उपाधिसे रहित है। ॥२०॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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