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श्रावकाचार
कषायका भागी होगा। उसके भावों में अधर्म ही अधर्म हर समय पाया जायगा । वास्तवमें वीतधारणतरण
राग विज्ञान तो धर्म है। उसके विरुद्ध जो कुछ भी रागद्वेष आदि मैलसे मैला भव है वह सब ॥१९ ॥ अधर्म है, कुधर्म है, संसारका कारण है। मिथ्यात्व साहन सर्व भाव बाहरमें धर्म सरीखे दिखते हैं
परन्तु वे अधर्म हैं। इस अधर्मको धर्म मानना यह गहरा मिथ्यात्व है। यहां ग्रंथकर्ताका भाव प्राणि. योंको धर्ममें सावान करनेका है इसलिये वे प्रेरणा करके कहते हैं कि जो इस नरभवको सफल
करना चाहें और सुखसे वर्तमान जीवन व भविष्यका जीवन विताना चाहें उनको उचित है कि V यथार्थ धर्मको समझें, कुधर्मको धर्म न जाने । जिस धर्ममें विषयकषायकी किसी भी तरह पुष्टि है वह अधर्म है व जहां वैराग्य और शुद्धात्म तत्वकी पुष्टि है वह धर्म है। सुभाषित में कहते हैंविरागसर्वज्ञपदाम्बुजद्वये यतौ निरस्ताखिलसङ्गसङ्गती, वृषे च हिंसा रहिते महाफले करोति हर्ष जिनवाक्यमवितः ॥१५८॥
भावार्थ-श्री जिनवाणीके अनुसार भावना करनेवाला वीतराग सर्वज्ञके चरणकमलों में, सई परिग्रह रहित साधुमें व हिंसा रहित महा फलदाई धर्ममें आनन्द मानता है।
धर्मका स्वरूप। श्लोक-शुद्धधर्म च प्रोक्तं च, चेतनालक्षणो सदा ।
शुद्ध द्रव्यार्थिक नयेन, धर्म कर्मविमुक्तयं ।। १६८ ॥ अन्वयार्थ-(शुद्धधर्म च प्रोक्तं च ) शुद्ध धर्म ऐसा कहा गया है कि वह ( सदा) सदा (चेतनालक्षणः) * आत्माका चेतना लक्षण है । (शुद्ध द्रव्यार्थिक नयेन) शुद्ध द्रव्य की दृष्टिसे (धर्म) वह धर्म (कर्मविमुक्तय) ४ सर्व प्रकार कर्मसे रहित है।
विशेषार्थ-अब यहां निश्चय धर्म या शुद्ध धर्मको कहते हैं। यह साक्षात् मोक्षमार्ग है। निश्चय धर्मका आराधन करे विना न कोई मोक्ष गया है न जावेगा न अब किसी क्षेत्रसे जासक्ता है। यह असली धर्म आस्माका या अपना स्वरूप है। आत्माका लक्षण चेतना है अर्थात् स्वभावसे आत्मा ज्ञानचेतना स्वरूप है, अपने ही यथार्थ ज्ञानमय शुद्ध स्वरूपका अनुभव या स्वाद लेनेवाला है। यह
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