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श्रावकाची
बारणतरण लौंप कर दिया जाता है। यदि किसी धर्मात्माने कोई हितकी बात कही है तथा इसतरह पर कही ॥१४॥
है कि जिससे इसके दिलमें कुछ असर होवे। यह उस बातसे इतना बुरा मान लेता है कि जाने जो कुछ धर्म सेवता था उसको भी छोड़ बैठता है। क्रोधको यदि वश नहीं कर सके तो बडे २ तपस्वी भ्रष्ट हो दुर्गतिके पात्र होजाते हैं। क्षमा जहां है वहीं धर्मकी उन्नति है। जहां क्रोध है वहां धर्मका नाश है। क्रोध कषाय परिणामोंको अति मलीन व हिंसक बना देता है। सुभाषित. में कहते हैं
धैर्य धुनाति विधुनोति मति क्षणेन, राग करोति शिथिलीकुरुते शरीरं ।
धर्म हिनास्ति बचन विदधात्यवाच्यं, कोपो ग्रहो रतिपतिर्मदिरामदश्च ॥ १६॥ भावार्थ-यह क्रोधरूपी राक्षस कामके समान या मदिराके नशेके समान धैर्यको नाश कर देता है, क्षणमात्रमें बुद्धिको बिगाड देता है, रागको या हठको बढा देता है, शरीरको शिथिल कर देता है, धर्मको नाश कर देता है, वन कहने योग्य वचनोंको कहलाने लगता है। वास्तव में यह क्रोध इस लोक व परलोकमें महान पाधाकारी है। श्लोक-एतनु भावनं कृत्वा, अधर्म तस्य पस्यते ।
रागादि मल संजुक्तं, अधर्म ततु गीयते ॥ १६७ ॥ अन्वयार्थ (एतत्तु भावनं कृत्वा ) जहां ऊपर लिखित सात व्यसन, आठ मद व चार अनन्तानुबन्धी कषायोंकी भावनाएं की जाती हैं (तस्य ) वहां उस प्राणीके भीतर (अधर्म ) अधर्म ही (पस्यते) ४ देखा जाता है । (रागादि मल संजुक्त ) जो कुछ भाव या वचन या क्रिया रागवेषादि मलके साथ में है (तत्तु अधर्म गीयते ) उसको तो अधर्म ही कहा जाता है।
विशेषार्थ-ग्रंथकाने धर्मका स्वरूप ऊपर बहुत विस्तारसे कहा है, तथा स्पष्ट कर दिया है कि भावना ही अधर्म है व भावना ही धर्म है। जहां अपने शुद्ध स्वरूपकी भावना नहीं है वहां संसारकी भावना होगी। जहां संसारकी भावना होगी वहां पांच इंद्रियोंके भोगकी व लोभ व मान कषायकी पुष्टिकी ही विशेष भावना होगी। इस अशुभ भावनासे पीडित होकर वह प्राणी अवश्य ही सात व्यसनोंकी भावनामें फंस जायगा, आठ प्रकारका मद करेगा, तीन क्रोधादि
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