________________
धारणतरण ॥१७३॥
करना चाहिये। थोडीसी आयुके लिये मायाचारकरके धनका एकत्र करना आगामी पापके उदयसे तीव्र दुःखका कारण हो जायगा । सुभाषितरत्न संदोह में कहते हैं
शीलव्रतोद्यमतपः शमसंयुतोऽपि न चाश्नुते निकृतिशस्यधरो मनुष्यः ।
मात्यंतिक नियमबाधसुखस्वरूपां शल्यान्वितो विविधधान्यधनेश्वरो वा । १८ ॥
भावार्थ - जो कोई मानव शील, व्रत, उद्यम, तप, शांत भावले विभूषित है परन्तु माया- शल्यसे पीडित है वह बाधा रहित सुखमई मोक्ष की लक्ष्मीको नहीं पासक्ता है। जैसे नानाप्रकार धनका स्वामी होनेपर भी कांटा लग जानेपर वह दुःखहीको भोगता है ।
श्लोक –— कोहाग्निः अशाश्वते पोषितं, शरीरे मानबंधनं ।
अशाश्वतं तस्य उत्पाद, कोहाग्निः धर्मलोपनं ॥ १६६ ॥
अन्वयार्थ – ( कोहानिः ) क्रोध की अग्नि ( अशाश्वते ) क्षणभंगुर पदार्थके निमित्तसे ( पोषितं ) भड़क उठती है । (शरीरे मानबंधनं ) शरीर में अहंकार होनेसे इसका बंधन है । (तस्य ) इस क्रोध से (अशाश्वतं ) विनाशीक संसारका ( उत्पाद ) जन्म होता है । (कोहानिः ) यह क्रोध की अग्नि (धर्मलोपनं ) धर्मका लोप करनेवाली है ।
विशेषार्थ - जिन प्राणियोंका ममत्व शरीर में व शरीर के सुखके सहकारी स्त्री पुत्रों में व अन्य विषयके पदार्थों में होता है, जो अपनी पर्यायके ममत्वमें बंधे हुए होते हैं, उनको विनाशक पदाथके निमित्तसे क्रोध होजाता है। जब कोई उनको बिगाडता है या वे बिगडते तो स्वयं हैं परन्तु यह अज्ञान से किसीको उसमें कारण मानकर उनपर बहुत क्रोध करता है। जिसके अनंतानुबन्धी क्रोध होता है वह जरासा भी निमित्त मिलता है कि क्रोधमें आग भनुका होजाता है, अपने आधीन निर्बल, स्त्री, पुत्र, पुत्री, सेवक आदिको बहुत कष्ट देता है। मान व लोभके तीव्र उदयसे यदि किसीके द्वारा मानमें व लोभके साधन में बाधा पहुंचती है तो यह क्रोधित हो उस व्यक्तिले अति द्वेष या वैरभाव बांध लेता है तथा उसको कष्ट पहुंचाए विना चैन नहीं पाता है । इस क्रोध कषायसे वह कर्म बांधकर इस विनाशीक संसारको और बढ़ा लेता है । क्रोधके कारण धर्मका भी
श्रावका
H2OPIE