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________________ बारणवरण ॥१०॥ कपटके फंदेमें फंसा रहता है। उसका भाव बांसके बेड़ेके समान अदृश्य मायाचारकी गहरी पासनासे पासित होता है। श्लोक-माया अचेत पुन्यार्थ, पाप कर्म च वर्धते । शुद्ध तत्व न यस्यंते, मायावी नरयं पतं ॥१६॥ अन्वयार्थ-(माया अचेत ) मायामें लिप्त अज्ञानी जीव ( पुण्यार्थ) पुण्यरूप किये हुए कार्योंसे भी ॐ (पाप कर्म च वर्धते) पाप कमो का ही बन्ध बढ़ा लेता है (शुद्ध तत्व न यस्यते ) वह शुद्ध आत्मतत्वको नहीं अनुभव करता है ऐसा (मायावी) मायाचारी (नस्य पतं) नरकमें चला जाता है। विशेषार्थ-मायाके अंधकारसे जिसकी बुद्धि मलीन होरही है ऐसा मिथ्याज्ञानी जीव अपनी माया फैलानेके लिये उन कामोंको बडी ही बाहरी भक्तिसे करता है। जिन कार्योंके सरलतासे व ४ कपट रहित करनेसे पुण्य कमाका बन्ध होता है, परन्तु वह बिचारा उन्हीं कार्योंसे घोर पाप कर्मका बन्ध कर लेता है। देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, व दान-ये छः गृहस्थके कार्य पुण्यबंध करानेवाले हैं। परन्तु माया शल्यके साथ किये हुए इनहीसे पापका घोर पन्ध होजाता है। काका बन्ध भीतरी पासनासे होता है। वीतरागताका जिसका अभिप्राय होगा उसके तो बहुतसे पापोंका क्षय होगा। निदान रूप विषयभोगोंका अभिप्राय होगा तो वह अल्प पुण्य बन्ध करेगा। यदि मायाचारका अभिप्राय होगा तो वह माया कषाषके कारण तीब पापका बंध करेगा। मायावीके मात्र छल कपटकी भावना रहती है। वह तो उस ठगियाके समान है जो विश्वासपात्र मित्र बनकर मित्रता करता हुआ भी ठगनेका ही भाव रखता है। जैसे बिल्ली चूहेके लोभमें रहती है वैसे वह र स्वार्थ साधनके लोभमें रहता है। अतएव पुण्यके स्थानमें पापोंका ही बन्ध करता है। वह मिथ्याष्टी जीव शुख तत्वको नहीं पहचानता है, न उसकी कचि करता है, न उसका अनुभव ही कर सक्का है।वह कृष्णादि अशुभ लेश्याके कारण नरकगति बांध लेता है। माया कषाय इस जीवका बड़ा ही बरा करनेवाला है, ऐसा जानकर जो अपना हित करना चाहें उनको माया कषायका त्याग करके सरलतासेही व्यवहार करना चाहिये और इस मानवजन्मको आर्जवधर्मको पालकर सफल ॥११॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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