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मो.मा.
प्रकाश
उपयोगकी भी एक ही भेदकी प्रवृत्ति हो है जैसे मतिज्ञान होय तब अन्यज्ञान न होय । बहुरि । एक भेदविष भी एक विषयविषे ही प्रवृत्ति हो है। जैसे स्पर्शकों जानै तव रसादिककों न जाने बहुरि एक विषयविषै भी ताके कोऊ एक अंगहीविषै प्रवृत्ति हो है.जैसे उष्णस्पर्शकों जाने। तब रूचादिककौं न जानै ऐसे एक जीवकै एक कालविषै एक ज्ञेय वा दृश्यविष ज्ञाम वा | दर्शनका परिणमन जानना । सो ऐसे ही देखिए है। जब सुननेविर्षे उपयोग लग्या होय तब | नेत्रके समीप तिष्ठता भी पदार्थ न दीसे ऐसे ही अन्य प्रवृत्ति देखिये है । बहुरि परिणमनविषै
शीघ्रता बहुत है ताकरि काहू कालविषै ऐसा मानिए है युगपत् भी अनेक विषयनिका जानना वा देखना हो है सो युगपत् होता नाहीं क्रमहीकरि हो है संस्कारवश तिनिका साधन रहै है । जैसे कागलेकै नेत्रके दोय गोलक हैं फूलरी एक है सो फिरै शीघ्र है ताकरि दोऊ गोलकनिका साधन कर है । तैसें ही इस जीवकै द्वार तो अनेक हैं अर उपयोग एक है सो फिरै
शीब है ताकरि सर्व द्वारनिका साधन रहै है । इहां प्रश्न-जो एक कालविणे एक विषयका | जानना वा देखना हो है तौ इतना ही क्षयोपशम भया कहौ, बहुत काहेकौं कहौ । बहुरि तुम कहो हौ क्षयोपशमतें शक्ति हो है तौ शक्ति तो आत्माविषे केवलज्ञानदर्शनकी भी पाइये है। ताका समाधान
जैसे काहू पुरुषकै बहुत ग्रामनिविषै गमनकरनेकी शक्ति है। बहुरि ताकौं काहूनै ।। ५४