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________________ मो.मा. प्रकाश वृद्ध अवस्थाविप द्रव्यइंद्रिय वा मन शिथिल होय तब जानतना भी शिथिल होय। बहुरि । जैसे शीत वायु आदिके निमित्तते स्पर्शनादि इंद्रियनिके वा मनके परमाणु अन्यथा होंय तब जानना न होय वा थोरा जानना होय वा अन्यथा जानना होय । बहुरि इस ज्ञानकै अर वाद्य द्रव्यनिके भी निमितनैमितिक सम्बन्ध पाइये है ताका उदाहरण-जैसे नेत्रइंद्री के अंधकार | के परमाणु वा फूला आदिकके परमाणु पापाणादिके परमाणु आदि आड़े आय जाएँ तो देखि न सके। बहुरि लालकाच आड़ा आवै तौ सब लाल ही दीसै, हरितकाच आड़ा आवै तो हरित दीखै ऐसें अन्यथा जानना होय । बहुरि दूरीणि चसमा इत्यादि आड़ा आवे तो बहुत दीखने लगि जाय । प्रकाश जल काच इत्यादिकके परमाण आड़े आवे तो भी जैसाका | तैसा दीखे ऐसे अन्य इंद्रिय वा मनकै भी यथासंभव जानना। बहुरि मंत्रादिक प्रयोगते या मदिरापानादिकतै वा भूतादिकके निमित्तते न जानना वा थोरा जानना वा अन्यथा जानना हो है । ऐसें यह ज्ञान बाह्यद्रव्यके भी आधीन जानना। बहुरि इस ज्ञानकरि जो जानना हो। है सो अस्पष्ट जानना हो है । दूरित केसा ही जानै, समीपते कैसा ही अने, तत्काल कैसा ही | जाने, जानते बहुत बार होजाय तव कैसा ही जाने, काहूकों संशयलिये जाने, काहूकौं अन्यथा जाने, काहूकौं किंचित् जानें इत्यादि रूपकरि निर्मल जानना होय सकै नाहीं । ऐसें यह मतिज्ञान पराधीनतालिये इंद्रियमनद्वा करि प्रवर्ते है। तहां इंद्रियनिकरि तौ जितने क्षेत्रका विषय
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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