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श्री
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ॐ हैं वे (अहिंसानृत उच्यते) अहिंसा व्रत है, अनृत त्याग ब्रत कहा जाता है (अस्तेयं ) चोरीका त्याग है (शुद्धं ब्रम व्रतं ) शुख ब्रह्मचर्य व्रत है (अपरिग्रहं स उच्यते ) वह परिग्रह त्याग व्रत कहा जाता है।
विशेषार्थ-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग इन पांच व्रतोंको एक देश पालनेका अभ्यास पहली दर्शनप्रतिमासे प्रारंभ होता है फिर बढता हुआ चला जाता है। महावतोंमें
कुछ ही कमी रह जाती है वहांतक उत्कृष्ट प्रावक ग्यारह प्रतिमाधारी होता है। ये पांच ब्रतही ॐ संवरके कारण हैं। अविरत भावसे जो कोका आस्रव बंध होता है वह इन ब्रतोंके पालनेसे बंद. होता जाता है, वीतरागता बढती जाती है।
श्लोक-हिंसा असत्य सहितस्य, रागदोष पापादिकं ।
थावरं त्रस आरंभ, त्यक्तते ये विचक्षनाः ॥ ४३८॥ अन्वयार्थ-(ये विचक्षनाः) जो चतुर श्रावक वे (हिंसा असत्य सहितस्य ) हिंसा व असत्य इन प्रयोजनोंको लेकर (रागदोष पापादिकं ) राग द्वेषको व पाप आदिको (थावरं त्रस आरंभ ) स्थावर व उसके आरम्भको (त्यक्तते) छोड देते हैं।
विशेषार्थ-अहिंसावत यह बताता है कि पर पीडाकारी भाव व मिथ्या वचनोंके द्वारा परको ठगनेका भाव दिलसे निकाल डाला जाने तथा भाव हिंसा व द्रव्य हिंसा दोनोंसे बचा जावे । राग द्वेष क्रोधादि भाव व पाप करनेके परिणाम भाव हिंसा है, क्योंकि उनसे आत्माके शुद्ध ज्ञानादिका व शांत भावका घात होता है। तथा स्थावर व त्रस छःकायके प्राणियोंका घात द्रव्यहिंसा है। श्रावकोंके भाव ये ही रहने चाहिये कि हम भाव हिंसा व द्रव्य हिंसा दोनोंसे बचे । इस पूर्ण अहिंसाव्रतकी भावनाको दृढतासे रखते हुए ये श्रावकगण ग्यारह श्रेणियोंके द्वारा इस अहिंसावतको यथाशक्ति प्रारंभ करते हुए अंतमें पूर्णताके निकट पहुंचा देते हैं, साधु होने तक पूर्ण अहिंसाके अभ्यासी होजाते हैं। अंतरंगमें वीतराग भाव बाहरमें आरंभकी कमी, ये ही उपाय अहिंसाके पालनेके हैं। धर्म अहिंसामय है, मेरे भाव भी निराकुल रहे व दूसरे भी प्राणी मेरे द्वारा कष्ट न पावे ऐसा दयाभाव श्रावकोंके भीतर रहना योग्य है।
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