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________________ तारणतरण श्रावकाचार ॥३४॥ श्लोक-शल्यं मिथ्यामयं त्यक्तं, कुज्ञान त्रिविध त्यक्तयं । ऊधं च ऊर्ध सद्भाव, ॐवं कारं च विंदते ॥ ३५२ ॥ अन्वयार्थ-(मिथ्यामयं शल्यं त्यक्तं ) मिथ्यारूप तीन शल्यको त्यागना चाहिये (कुज्ञान त्रिविध त्यक्तयं) तीन प्रकार कुज्ञानको त्यागना चाहिये (ऊषं च ऊर्ध सदभावं च ॐ वंकारं विंदते) तथा ऊर्ष अर्थात् सिड भगवानको और उनके स्वभावको तथा ॐ को भलेप्रकार जानना चाहिये। विशेषार्थ-करणानुयोगसे सूक्ष्मज्ञान करके उनका उपयोग मिथ्यात्वकी पुष्टिमें, मायाचारके प्रयोगमें व किसी विषयभोगकी प्राप्तिकी कामनारूप निदानमें नहीं करना चाहिये। तीन शल्यको छोडकर धर्मध्यानके हेतु उसका उपयोग करना चाहिये, तथा ज्ञानके तीन दोष बचाने चाहिये । संशय, विपरीत व अनध्यवसाय (बेपरवाही) इन तीन दोषोंसे रहित ज्ञानको यथार्थ स्पष्ट प्राप्त करना चाहिये । अथवा कुमति, कुश्रुत, कुअवधि तीन कुज्ञानोंसे बचना चाहिये अर्थात् मिथ्यात्वके परिणामको दिलसे निकाल डालना चाहिये । सर्वसे उत्कृष्ट जो ऊर्धलोकमें विराजमान ऐसे सिडभगवानको भलेप्रकार समझना चाहिये। तथा उनके शुद्ध गुणोंका वार वार मनन करना चाहिये। ॐ के भीतर गर्भित पांच परमेष्ठीका स्वरूप विचार करके निश्चय नयसे उनमें शुखात्माको देखना चाहिये। श्लोक-द्रव्यदृष्टी च सम्पूर्ण, शुद्धं सम्यग्दर्शनं । ज्ञानमयं सार्थ शुद्धं, करणानुयोग चिंतनं ॥ ३५३ ॥ अन्वयार्थ- द्रव्यदृष्टी च सम्पूर्ण ) द्रव्यदृष्टि या द्रव्यार्थिक नय पूर्ण द्रव्यको देखनेवाली है इसीके . द्वारा (शुद्धं सम्यग्दर्शनं) शुद्ध सम्यग्दर्शनका लाभ होता है (ज्ञानमयं सार्थ शुद्ध) ज्ञानमई यथार्थ शुद्ध आत्माका अनुभव होता है। यही (करणानुयोग चिंतन) करणानुयोगकी चिंताका फल है। विशेषार्थ-करणानुयोगमें यद्यपि मुख्यतासे पर्यायार्थिक नयसे अनेक भेद प्रभेदका कथन है उसको भलेप्रकार जानकरके ही संतोष न कर लेना चाहिये, मात्र भेदरूप अशुद्ध ज्ञान अकेला सम्यग्यदर्शनकी प्राप्ति नहीं करा सक्ता है इसलिये शुद्ध द्रव्यार्थिक नय या निश्चय नयसे भी द्रव्योंका
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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