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________________ .मा. रूपकों भी पहिचाने । ताते च्यारयो ही अनुयोग कार्यकारी हैं । बहुरि तिनका नीका ज्ञान होनेके अर्थि शब्दन्यायशास्त्रादिक भी जानना चाहिए । सो अपनी शक्तिके अनुसार थोरा वा बहुत अभ्यासकरना योग्य है । बहुरि वह कहै है, “पद्मनन्दिपच्चीसी” विष ऐसा कहा हैजो आत्मखरूपते निकसि बाह्य शास्त्रनिविष बुद्धि विवरै है, सो वह बुद्धि व्यभिचारिणी है। ताका उत्तर यह सत्य कह्या है । बुद्धि तो आत्माकी है, ताकों छोरि परद्रव्य शास्त्रनिविणे अनुरागिणी || भई, ताकों व्यभिचारिणी ही कहिए। परंतु जैसे स्त्री शीलवती है, तो योग्य ही है। अर न || रया जाय, तो उत्तमपुरुषकों छोड़ि चांडालादिकका सेवन किए तो अत्यन्त निंदनीक होय । तैसें बुद्धि आत्मखरूपविषे प्रवर्ते, तो योग्य ही है । भर न रह्या जाय, तो प्रशस्त शास्त्रादि | | परद्रव्यकौं छोरि अप्रशस्त विषयादिविर्षे लगे तो महानिंदनीक ही होय। सो मुनिनिके भी । | बहुत काल स्वरूपविषै बुधि रहै नाहीं, तो तेरी कैसे रह्या करै । ताते शास्त्राभ्यासविष बुद्धि || लगावना युक्त है। बहुरि जो द्रव्यादिकका वा गुणस्थानादिकका विचारको विकल्प ठहरावै । 1. है, सो विकल्प तो है, परंतु निर्विकल्प उपयोग न रहै, तब इन विकल्पनिकों न करे तो अन्य विकल्प होय, ते बहुत रागादिगर्भित होय हैं। बहुरि निर्विकल्पदशा सदा रहै नाहीं। जाते। छद्मस्थका उपयोग एकरूप उत्कृष्ट रहै, तो अंतर्मुहुर्त रहै। बहुरि तू कहेगा-में आत्मखरूपही
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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