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मो.मा. शास्त्रकार तत्वनिका विशेष जाननेते सम्पादन ज्ञान निर्मल होय है। बहुरि तहां यावत् || प्रकाश उपयोग रहै, तावत् कषाय मंद रहै । बहुरि आगामी वीतरागभावनिकी वृद्धि होय । ऐसे का
यको निरर्थक कैसें.मानिए । बहुरि वह कहै—जो जिनशास्त्रविर्षे अध्यात्मउपदेश है, तिनिका ।।। अभ्यास करना, अन्य शास्त्रनिका अभ्यासकरि किछु सिद्धि नाहीं । ताकौं कहिए है__जो तेरे सांची दृष्टि भई है, तो सर्व ही जैनशास्त्र कार्यकारी हैं। तहां भी मुख्यपने अ। ध्यात्मशास्त्रनिविषे तो आत्मस्वरूपका मुख्य कथन है। सां सम्यग्दृष्टी भए आलस्वरूपका तो । निर्णय होय चुकै, तब तो ज्ञानकी निर्मलताकै अर्थ वा उपयोगकों मंदकषायरूप राखनेके || । अर्थि अन्य. शास्त्रनिका अभ्यास मुख्य चाहिए । अर आत्मखरूपका निर्णय भया है, ताका | N स्पष्ट राखनेके आर्थ अध्यात्मशास्त्रनिका भी अभ्यास चाहिए । परंतु अन्य शास्त्रनिविषै अ। रुचि न चाहिए । जाकै अन्यशास्त्रनिकी अरुचि है, ताके अध्यात्मकी रुचि सांची नाहीं । जैसे जाके विषयासक्तपना होय, सो विषयासत पुरुषनिकी कथा भी रुचितें सुने, वा विषयके विशेष । कौं भी जाने, वा विषयके आचरननिवि जो साधन होय, ताकौं भी हितरूप जाने, वा विषय का स्वरूपको भी पहिचानै । तैसें जाकै आत्मरुचि भई होय, सो आत्मरुचिके धारक तीर्थकरादिक तिनका पुराण भी जाने, बहुरि आत्माके विशेष जाननका गुणस्थानादिककों भी जाने, बहुरि आत्माचरणावि जे वतादिक साधन हैं, तिनकों भी हितरूप माने, बहुरि आत्माकेख-३०५