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बारणवरण
बोध होने के भीतर मिकराने वाले हैं। लिये ) अनादिक
मिथ्यात्वका स्वरूप। श्लोक-मिथ्या संयम हृदये, चित्ते मिथ्या तप सदा ।
अनंतानंत संसारे, भ्रमते नादिकालिय ॥ १२ ॥ अन्वयार्थ (हृदये) मनमें (मिथ्यासंयम) मिथ्यात्व सहित संयमका पालना (चित्ते) चित्त में (मिथ्या तप) मिथ्यात्व सहित तपका आचरना (सदा) सदा ही (अनादिकालिय) अनादिकालसे (अनंतानंतसंसारे) इस अपार अनंतानंत संसारमें (भ्रमते) भ्रमण कराने वाले हैं।
विशेषार्थ—मिथ्या चारित्रके भीतर मिथ्या संयम व मिथ्या तप भी गभित हैं। तथापि शिष्योंको विशेष बोध होनेके लिये अलग कहा गया है । सयम महाव्रत और अणुव्रत रूपसे दो प्रकार है। अहिंसादि पांचों व्रतोंको पूर्ण पालना महाव्रत है। इसको आचरनेवाले साधु होते हैं। इनहीको अपूर्ण अपनी शक्तिके अनुसार पालना अणुव्रत है। तथा संयमके इंद्रिय संयम व प्राण सयम ऐसे दो भेद भी हैं। स्पर्शनादि पांच इन्द्रियोंको व मनको वश रखना इन्द्रिय संयम है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा त्रस इस छः प्रकारके संसारी जीवोंकी रक्षा करना प्राणि संयम है। बारह प्रकारका तप है-छः बाहरी, छः अंतरंग।१ उपवास, २ ऊनोदर, ३ भिक्षाको जाते हुए प्रतिज्ञा-वृत्तिपरिसंख्या, ४ रस त्याग, ५ विविक्तशय्यासन एकांतमें शयन व आसन रखना, ६ कायक्लेश अर्थात् शरीरका सुखियापना मिटानको कठिन तप करना, ये छः बाहरी तप हैं। १ प्रायश्चित्त, २ विनय, ३ वैश्यावृत्य, ४ स्वाध्याय, ५ व्युत्सर्ग (ममता त्याग), ६ ध्यान, ये ६ अंतर तप हैं। जो कोई साधु साधुका संयम पाले, बारह प्रकारका तप तपे अथवा श्रावक अपने योग्य संयम पाले व यथाशक्ति तप तपे परंतु चित्तमें सम्यक्त न हो मिथ्यात्व हो तो वह सब सयम मिथ्या सयम है व सब तप मिथ्या तप है। यदि अभिप्राय आत्मशुष्टिका है तब तो संयम व तप सम्यक सहित होनेसे यथार्थ हैं। यदि अभिप्राय किसी प्रकारकी आशाका है। ख्याति, लाभ, पूजा, बड़ा ईकी चाह है, स्वर्गादि सम्पदा चक्रवर्ती आदिके क्षणिक सुख पानेकी अभिलाषा है तो बाहरसे ठीक पाला हुआ भी संयम व तप मिथ्या संयम व तप है। मिथ्यात्वके विना त्यागे संयम व तप
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