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श्रावकाचार
साधन करते हुए भी यह जीव अनादिकालसे अनंत संसार करता चला आरहा है वसंमार अनंत वारणतरण काल तक करता रहेगा। सम्यक् दर्शनके विना संसारका क्लेश मिट नहीं सका।
श्लोक-मिथ्यात्व दुष्ठसंगेन, कषाये रमते सदा ।
लोभं क्रोधं मयं मानं, गृहीतानंत बंधनं ॥ २३ ॥ मन्वयार्थ-मिथ्यात्व दुष्टसंगेन) मिथ्यादर्शन रूपी दुष्ट परीकी संगतिसे यह जीव (सदा) सदा (कपाये)कषायके भीतर (रमते) रंजायमान होता है। वे कषायें (गृहीगनंत बंधनं) अनंतकाल तक बंधकी परम्परा चलाने वाली अथवा मिथ्यात्वके बंधनको पकड़े रहने वाली चार हैं (लोभं क्रोध मयं मानं) क्रोध, मान, माया और लोभ ।
विशेषार्थ-मिथ्यादर्शन जीवका महान वैरी है। इसकी संगतिसे यह संसारी जीव कषायके, ५ उदयमें तन्मय होकर रंजायमान होजाता है । क्रोधके उदयमें मैं क्रोधी, मानके उदयमें मैं मानी,
मायाके उदयमें मैं मायावी, लोभके उदयमें मैं लोभी ऐसा मानता रहता है कभी भी उसके भीतर यह बुद्धि नहीं होती है कि ये कषाय मेरा स्वभाव नहीं हैं, यह कर्मकृत विकार है, या रोग है इसका प्रसंग त्यागने योग्य है क्योंकि उस अज्ञानीको अपने शुद्ध आत्मद्रव्यकी बिलकुल खबर नहीं है। रमनेका भाव यही है कि जब जिस कषायका जोर होता है तब उसीके अनुसार कार्य भी करने लग जाता है। क्रोधके कारण वैर बांधकर दुसरेकी बुराई करने में ही हर्ष मानता है। मानके कारण अपनी महत्ता प्रगट करने में व दूसरोंको नचिा दीखाने में ही राजी रहता है। मायाके कारण अपने विश्वासपात्र मित्रोंको भी ठग लेता है । लोभके वशीभूत हो न्याय अन्यायका विचार छोड़कर धन एकत्र करता है। इंद्रियोंकी भोग सामग्री जमा करता है । अंधा हो भोग लिप्त होजाता है। मांसाहारमें, मदिरापानमें तन्मय रहता है, शिकार खेलने में हर्ष मानता है, चोरी, ठगाई, लूटपाट करके अपनी चतुराई मानता है, जूआ रमणकर कभी हर्ष कभी विषाद करता है, हार जीतके मद में धर्म कर्म भूल जाता है, स्वच्छन्द हो वेश्यागामी व परस्त्री रत होजाता है । मिथ्यादृष्टीके अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभका उदय प्रायः सदा ही रहता है। ये कषायें जो अनंत मिथ्यात्व