________________
श्रावकाचार
सारणतरण
उसको पुष्ट करनेवाली हैं व उसके पीछे रहनेवाली हैं तथा ऐसा कर्मका बंध करानेवाली हैं जिससे बंधकी परम्परा दीर्घकाल तक चली जावे, कठिनतासे छूटे। ये अनंतानुबंधी कषायें जीवको अन्यायसे ग्लानि मिटा देती हैं। ये सम्यकदर्शन और स्वरूपाचरण चारित्र दोनोंको घात करनेवाली हैं। पद्यपि सासादन गुणस्थानमें मिथ्यात्वका साथ कुछ देरके लिये नहीं रहता है परंतु ये कषायें तुरत मिथ्यात्वको बुला लेती हैं। सम्यक्तसे गिरते हुए अधिकसे अधिक छ: आवली कालतक ही सासादन गुणस्थान रहता है फिर तुर्त मिथ्यात्व गुणस्थान मिथ्यात्वके उदयसे आजाता है कभी अनंतानुबंधीको अन्य कषायरूप करनेवाला अर्थात विसंयोजन करनेवाला जीव ग्यारम गुणस्थान तक चढ़के यदि मिथ्यात्वमें आता है तो एक आवली तक अनंतानुबंर्धाका साथ नहीं रहता है, मिथ्यात्व अकेला ही उदयमें रहता है परंतु आवली पीछे उदय होने लगता है। इसलिये ये कषाय मिथ्यात्वको
साथी बना लेते हैं। या मिथ्यात्व इनको अपना साथी बना लेता है। सम्यक्तभाव पानेके लिये इन ४कषायोंका मिथ्यात्वके साथ दमन करना जरूरी है।
कषायोंका स्वरूप । श्लोक-लोभं कृतं अशुद्धस्य, शाश्वतं दृष्टते सदा।
अनृते कृत आनंद, अधर्म सारभंजनं ॥ २४ ॥ ___अन्वयार्थ-(लोभ कृतं ) लोभको करनवाला जीव (सदा) सदा (अशुद्धस्य) अशुद्ध भाव या पर्यायको (शाश्वतं) नित्य रहनेवाली (दृष्टते) देखता है। (अनृते) मिथ्या मन वचन कायकी प्रवृत्तिमें (कृत आनंदं) आनन्द मानता रहता है (अधर्म ) यह लोभ अधर्म है-पाप है (सारभंजनं) सार जो ४ आत्मधर्म है उसको खंडन करनेवाला है।
विशेषार्थ—यहां अनन्तानुवन्धी लोभका स्वरूप बताया है। इस लोभके उदयसे यह प्राणी जो अशुद्ध क्षणभंगुर पर्याय है उसके लिये मानता है कि सदा बनी रहे। जीतव्य, यौवन, धन, स्त्री, पुत्र, बल, रूप, अधिकार, इंद्रिय भोग इत्यादि अशुद्ध कर्मजनित संयोगोंको तथा अशुद्ध राग
४॥२५॥