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श्रावकाचार
वारणतरण
॥१९॥
LAGAKARMAGARMAKAL
पर अग्निमय तीन साथियें बने हैं तथा भीतरी कोनोंपर तीनों जगह ॐ अग्निमय स्थापित हैं। इन अग्निमें लपके उठती ईई विचारे परन्तु धुंआ नहीं है। ऐसा अग्निका मंडल बाहर शरीरको, भीतर आठ कर्मको जलाता जलाता दोनोंको भस्म रूपमें करता हुआ धीरे २ शमन होता है और अग्निकी शिखा हैके रेफसे उठी थी उसीमें समा जाती है ऐसा वारवार ध्यान करना आग्नेयी धारणा है।।
(क)मारती धारणा-वही ध्यानी ऐसा चितवन करे कि आकाशमें पूर्ण एक प्रचण्ड पवन चल रही है जो मेघोंको वखेर रही है, समुद्रको क्षोभित कर रही है, दशों दिशाओं में फैल रही है तथा मेरे चारातरफ एक गोल मण्डल बनाकर घूम रही है। उस गोल मण्डल में सब ओर पवनका बीजाक्षर स्वाय स्वाय लिखा हुआ विचारे । फिर यह सोचे कि यह पवन जो कर्मकी तथा शरीरकी भस्म थी उसको उडा रही है ऐसा वारवार चिंतवन करना सो पवन धारणा है।
(४) वारुणी धारणा-वही ध्यानी विचारे कि आकाशमें काले २ मेघोंके समूह छागए हैं, बादल गर्ज रहे हैं, विजली चमक रही है, उनसे मोती समान उज्वल जलकी धारा वरष रही है, लगातार जलकी वर्षासे यह अर्धचन्द्राकार जलका मंडल अपने ऊपर बन गया है उसपर हर जगह जलका बीजाक्षर प प प प लिखा हुआ है। यह धारा आत्माको घो रही है। जो कुछ कर्मकी व शरीरकी रज शेष रह गई थी उसको यह जलधारा वहा रही है ऐसा वारवार चिंतवन करें।
(५) तत्व रूपवती धारणा-फिर वही ध्यानी अपनेको सर्व शरीर व कर्म व राग दोष रहित पुरुषाकार अमूर्तीक शुख निरंजन सिद्ध समान चितवन करे और निश्चल रूपमें अपने आपमें तन्मय हो आत्मानुभव करे, यही असल में पिंडस्थ ध्यान है। चार जो धारणाएं हैं वे इस ही भात्माकार परिणति करने के लिये सहायक हैं।" यह ध्यान मोक्षके अविनाशी सुखको झलकानेवाला है। श्लोक-रूपस्थं सर्व चिद्रूपं, अधो ऊर्ध्वं च मध्ययं ।
शुद्धतत्त्वे स्थिरी भूत्वा, ह्रींकारेन जोइतं ॥ १८५॥
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