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मो.मा. में किछ प्रयोजन तो था नाहीं । ताका समाधानकाश
। भाषाविषै भी प्राकृत संस्कृतादिकके ही शब्द हैं । परंतु अपभ्रंश लिए हैं। बहुरि देशनिविषै भाषा अन्य अन्य प्रकार है । सो महंत पुरुष शास्त्रनिविषै अपभ्रंश शब्द कैसे लिखें। बालक तोतला बोलै, तो बड़े तो न बोलें । बहुरि एकदेशकी भाषारूप शास्त्र दूसरे देशविर्षे जाय, तो तहां ताका अर्थ कैसे भासे । न्यायविना लक्षण परीक्षा आदि यथावत् न होय सके। | इत्यादि वचनद्वारि वस्तुका स्वरूपनिर्णय व्याकरणा दे विना नीकै न होता जानि तिनकी आम्नाय अनुसार कथन किया । भाषाविषे भी तिनको थोरी बहुत आम्नाय आप ही उपदेश | होय सके है । तिनकी बहुत आम्नायतै नीकै निर्णय होय सके है । बहुरि जो कहोगे-ऐसे है, तौ अब भाषारूप ग्रंथ काहेकों बनाईए है । तःका समाधान
___ कालदोषते जीवनिकी मंदबुद्धि जानि केई जीवनिकै जेता ज्ञान होगा, तेता ही होगा, | ऐसा अभिप्राय विवारि भाषाग्रंथ कीजिए है । सो जे जीव व्याकरणादिकका अभ्यास न करि सके, तिनकों ऐसे ग्रंथनिकरि ही अभ्यास करना । बहुरि जे जीव शब्दनिकी नाना युक्ति लिए। अर्थ करनेकों ही व्याकरण अवगाहै हैं, वादादिको महंत होनेको न्याय अवगाहै हैं, चतुरपना प्रगट करनेके अर्थि काव्य अवगाहै हैं, इत्यादि लौकिक प्रयोजन लिए। इनका अभ्यास कर है, ते धर्मात्मा नाहीं । वनै जेता थोरा बहुत अभ्यास इनका क रि आत्महितकै अर्थि ३५८