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मो.मा. तत्वादिकका निर्णय करें हैं, सोई धर्मात्मा पंडित जानना । बहुरि कोई जीव पुण्य पापादिक प्रकाश फलके निरूपक पुराणादि शास्त्र वा पुण्य पापक्रियाके निरूपक आचारादि शास्त्र वा गुण-1
स्थान मार्गणा कर्मप्रकृति त्रिलोकादिकके निरूपक करणानुयोगके शास्त्र तिनका अभ्यास करै । हैं। सो जो इनका प्रयोजन आप न विचारे, तब तो सूवाकासा ही पढ़ना भया । बहुरि जो | इनका प्रयोजन विचारै है, तहां पापकों बुरा जानना, पुण्यकों भला जानना, गुणस्थानादिकका खरूप जानि लेना, इनका अभ्यास करेंगे तितना हमारा भला है इत्यादि प्रयोजन विचारया,
सो इसते इतना तो होगा-नरकादिका छेद स्वर्गादिकी प्राप्ति, परन्तु मोक्षमार्गकी तो प्राप्ति A होय नाहीं पहले सांचा तत्वज्ञान होय, तहां पीछे पुण्यपापका फलकों संसार जाने, शुद्धोप
योग मोक्ष माने, गुणस्थानादिरूप जीवका व्यवहार निरूपण जाने, इत्यादि जैसाका तैसा श्रद्धान करता संता इनका अभ्यास करे, तो सम्यग्ज्ञान होय । सो तत्वज्ञानकों कारण अध्या| मरूप द्रव्यानुयोगके शास्त्र हैं । बहुरि केई जीव तिन शास्त्रनिका भी अभ्यास करें है । परंतु जहां जैसे लिख्या है, तैसें आप निर्णयकरि आपकों आपरूप, परको पररूप, आस्रवादिकको आस्रवादिरूप न श्रद्धान करै हैं । मुखते तो यथावत् निरूपण ऐसा भी करें, जाके उपदेशते ।।
और जीव सम्यग्दृष्टी होय जाय । परंतु जैसें लड़का स्त्रीका खांगकरि ऐसा गान करे, जाकौं। I सुनते अन्य पुरुष स्त्री कामरूप होय जाय । परंतु वह जैसे सीख्या तैसें कहै है, वाकौं
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