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________________ मो.मा. प्रकाश किछु भाव भासे नाही, ताते आप कामासक्त न हो है । तैसें यह जैसे लिख्या, तैसें उपदश दे, परंतु आप अनुभव नाहीं करै है । जो आपके श्रद्धान भया होता, तो और तत्वका अंश और तत्वविष न मिलावता, सो याकै थल नाहीं, ताते सम्यग्ज्ञान होता नाहीं। ऐसे यह || ग्यारह अंगपर्यंत पढ़े, तो भी सिद्धि होती नाहीं । सो सनयसारादिवि मिथ्यादृष्टीकै ग्यारह अङ्गका ज्ञान होना लिख्या है। यहां कोऊ कहै-ज्ञान तौ इतना हो है, परंतु जैसैं अभव्यसेनके श्रद्धानरहित ज्ञान भया, तैसैं हो है । ताका समाधान वह तो पापी था, जाकै हिंसादिकी प्रवृत्तिका भय नाहीं । परंतु जो जीव ग्रैवेयिकादिविषे जाय है, ताकै ऐसा ज्ञान हो है, सो तौ श्रद्धानरहित नाहीं । वाके तो ऐसा ही श्रद्धान। है, ए ग्रंथ सांचे हैं परन्तु तत्वश्रद्धान सांचा न भया । समयसारविर्षे एक ही जीवकै धर्म1 का श्रद्धान एकादशांगका ज्ञान महाव्रतोदिकका पालना लिख्या है। प्रवचनसारविषे ऐसा लि ख्या है—आगमज्ञान ऐसा भया जाकरि सर्वपदार्थनिको हस्तामलकवत् जाने है। यह भी जाने है इनका जाननहारा में हूं। परन्तु में ज्ञानस्वरूप हौं ऐसा ओपकों परद्रव्यतै भिन्न केवल चैतन्यद्रव्य नाही अनुभवै है । तातें आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान भी। कार्यकारी नाहीं। या प्रकार सम्यग्ज्ञानके अर्थ जैनशास्त्रनिका अभ्यास करें है, तो भी याकै सम्यग्ज्ञान नाहीं। 3 ఆవిరించిందని వారుంచి మంచి రంగు రంగుల రంకు మంచి ३६०
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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