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प्रकाश
मो.मा. क्रियाविषे तो उपयोगौं रमावे है। परंतु वाकै प्रयोजन ऊपरि दृष्टि नाहीं है। इस उपदेशविर्षे
। मुझकों कारिजकारी कह्या, सो अभिप्राय नाहीं। आप शास्त्राभ्यासकरि औरनिकों उपदेश । देनेका अभिप्राय राखै है । घने जीव उपदेश माने तहां संतुष्ट हो है। सो ज्ञानाभ्यास तौ आपकै अर्थ कीजिए है और प्रसंग पाय परका भी भला करे। बहुरि कोई उपदेश न सुने, तौ ।। मति सुनौ, आप काहेकौं विषाद कीजिए । शास्त्रार्थका भाव जानि आपका भला करना । ब
हुरि शास्त्राभ्यासविषे भी केई तो व्याकरण न्याय काव्य आदि शास्त्रनिकों बहुत अभ्यासे । हैं। सो ए तो लोकविर्षे पंडितता प्रगट करनेके कारण हैं । इनविष आत्महितनिरूपण तो है ||
नाहीं । इनको तौ प्रयोजन इतना ही है । अपनी बुद्धि बहुत होय, तो थोरा बहुत इनका अ। भ्यासकरि पीछे आत्महितके साधक शास्त्र तिनका अभ्यास करना । जो बुद्धि थोरी होय, तो
आत्महितके साधक सुगम शास्त्र तिनहीका अभ्यास करै । ऐसा न करना, जो व्याकरणादिकका ही अभ्यास करते करते आयु पूरा हो जाय, अर तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति न बने । यहाँ। कोऊ कहै--ऐसे हैं तो व्याकरणादिकका अभ्यास न करना । ताको
कहिए है--तिनका अभ्यासविना महान् ग्रंथनिका अर्थ खुले नाहीं। तासे। । तिनका भी अभ्यास करना योग्य है । बहुरि यहां प्रश्न-महान् ग्रंथ ऐसे क्यों किए, जिनका
अर्थ व्याकरणादिः विना न खुले। भाषाकरि सुगम रूप हितोपदेश क्यों न लिख्या। उनकै ||३५७