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________________ श्रावसकर बारणतरण तीन मूढ़ताका स्वरूप। श्लोक-मिथ्या मायादि संपूर्णः, लोकमृदरतो सदा। लोकमृदस्य जीवस्य, संसारे भ्रमनं सदा ॥ २७ ॥ अन्वयार्थ (मिथ्यामायादि सम्पूर्णः) मिथ्या पर्यायोंके सम्बन्धसे या मिथ्यात्वके उदयके साथ २ जो माया, मान, क्रोध, लोभ, कषाय होते हैं उनसे पूर्ण यह जीव (सदा लोकमूदरतः) सदा जगत सम्बन्धी मूढ़ताया मोहमें रत रहा करता है। (लोकमूदस्य जीवस्य) लोककी मूढ़तामें फंसे हुए जीवका (सदा) इमेशा ही (संसारे ) इस संसारमें (भ्रमनं ) भ्रमन रहता है। विशेषार्थ-मिथ्यात्वके साथ होनेवाले अनंतानुषन्धी कषायोंके साथ यह जीव जगतकी विनाशीक पर्यायोंमें रागी देषी मोही होता हुआ लोकमें मढ़ बना रहता है। जो आत्महितके कार्य हैं उनसे विमुख रहता है, संसार वर्द्धक कार्यों में लवलीन रहता है। धर्मकी वृद्धि व सच्चे परोपकारमें धन नहीं खरचता है। नामवरीके लिये व विषय कषायकी पुष्टिके लिये धनको बहुत जल्द खरचता है। अध्यात्म विषयसे रुचि न करके अन्य कथाओं में फंसा रहता है। ऐसा मूर्व मोही प्राणी अनंVतानुबंधी और मिथ्यात्वके कारण चारों गतिमें भ्रमण कराने वाले कोकोबांधकर लेश्याके अनुसार नीची ऊंची गतिमें जाकर हरएक शरीरमें इन्द्रियोंकी इच्छाओंमें फंसा हुआ घोर कष्ट उठाया करता है। जबतक इस मूढ़ताको न छोड़े तबतक संसारसे पार होनेका मार्ग नहीं मिलता है। यही मोही जीव लोकमूढ़तामें भी फंस जाता है। लोगोंकी देखादेखी अधर्मको धर्म मानकर सेवन करने लगता है और उससे लौकिक लाभकी कामना करता है। लोकमूढ़ताका स्वरूप रत्नकरंडश्रावकाचारमें स्वामी समन्तभद्र कहते हैं आपगासागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् । गिरिपातोग्निपातश्च, लोकमुदं निगद्यते ॥ २२ ॥ भावार्थ-धर्म समझकर नदी या समुद्र में स्नान करना, वालू पाषाण आदिका ढेर करना, पर्वतसे गिरना, अनिमें जलकर मरना लोकमढ़ता कही जाती है। जो विधवा स्त्री पतिके साथ आगमें जलकर पतिव्रत धर्म मानती है वह भी लोकमूहता ही है । यदि वृथा प्राण न देकर पतिके
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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