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________________ श्रावकाच ॥१९॥ रंग और बहिरंग मिथ्या है, स्वमसम है, परिवर्तनशील हैं, अज्ञानी जीवोंका उनहोंमें राग होता है, वे राज्य, धन, कुटुम्ब, अधिकार, भोगादिके तीन अभिलाषी होते हैं। इन पदार्थोके स्वामित्वमें उनको अभिमान होता है। वे दूसरोंको तुच्छ दृष्टिसे देखते हैं तथा इनहीके बढ़ाने, प्राप्त करने, रक्षा करने आदिके लिये ही उनको मायाचार करना पड़ता है। अनेक प्रकार प्रपंच रचकर दूसरोंको ५ ठगने में प्रवृत्त होना पड़ता है। ये कषायें आत्माके भावोंका ऐसा बिनाकर देती हैं कि उसके भीतर पर्याय बुद्धिका भाव बढ़ता जाता है। जो पदार्थ नित्य नहीं रहनेवाले हैं उनको नित्य बनाए रखनेका रागभाव बढ़ता जाता है। वृद्ध होनेपर भी उनसे ममता नहीं छूटती है। अनित्य पदाथोंमें इस तरह मोह करनेसे धर्मको भूल जाता है,अधर्ममें रत होजाता है, अन्याय कार्य करने लग जाता है। जिससे तीन कर्म बांधकर नरकमें पतन होजाता है। इन दोनों कषायोंका दृष्टांत रावणका जीवन है। रावणने मायाचारसे सती सीताको हरण किया। उसम राग करके अनेक प्रपंव किये। अहंकार करके रामचंद्रसे युद्ध किया । फल यह हुआ कि वह नर्क चला गया। सुभाषितरत्नसंदोहमें कहा है नीति निरस्मति विनीतिमपाकरोति । कीति शशांकषवकां मलिनी करोति ॥ ___ मान्यान्न मानयति मानवशेन हीनः । प्राणीति मानमपइन्ति महानुभावः ॥ ४॥ मावार्थ-हीन बुद्धिधारी प्राणी मानके वशमें पड़कर नीतिको तोड़ देता है, अनीतिको पुष्ट करता है, चंद्रमा समान निर्मल यशको मेला कर देता है, मान्य महापुरुषोंको भी नहीं मानता है। ऐसा जानकर महान पुरुष मान नहीं करते हैं। शीलवतो यम तपः, शम संयुतोऽपि । नात्राश्नुते निकृति शस्यधरो मनुष्यः ।। आत्यन्तिकी श्रियमवाच सुखस्वरूपां । शस्यान्वितो विविष धान्य धनेश्वरो वा ॥ ५८ ॥ भावार्थ-शील, व्रत, उद्यम, तप, शांतभावसे संयुक्त होनेपर भी मायाचारी मानव इस जग१ तमें बाधा रहित मोक्षका आनन्द नहीं भोग सका है उसी तरह जिसतरह नानाप्रकार धन धान्यसे पूरित मानव कांटा लगनेपर दुःखी रहता है। coco
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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