________________
44444KORE
काय कांपने लगी मन क्लेशित व मैला होजात धर्मको जला बैठते हैं।
धारणतरण ४ जिसके वशीभूत हो यह प्राणी ऐसा अंधा होजाता है कि अपने प्रियजनोंको भी प्राण रहित कर
श्रावकाचार ॥२८॥
नेको तय्यार होजाता है। दूसरेका सर्वस्व नाश किये विना चैन नहीं पाता है। घोर हिंसामें प्रवृत्ति कर बैठता है।कोधकी भागसे दीर्घकालसे पाला हुआ धर्म नष्ट होजाता है। दीपायन मुनिने क्रोषके आवेशमें बारकाको भस्म करके अपने आपके धर्मका भी विनाश किया। बैरी बारा कष्ट दिये जाने पर जो साधु क्रधिकी अग्नि भड़का लेते हैं वे धर्मको जला बैठते हैं। क्रोधके आवेशमें बड़ा भारी केश होता है, मन क्लेशित व मैला होजाता है, वचन कठोर व अविचार पूर्ण निकलते हैं, काय कांपने लग जाती है, शरीरका रुधिर सूखने लगता है, परका घात करते हुए व अपना अपघात करते हुए भी नहीं रुकता है, शास्त्रज्ञानको भूल जाता है, ज्ञानका लाभ, ध्यानका उद्योग नहीं कर सकता है, आत्माको तीन कर्मबंधसे जकड़ता है, दीर्घकालसे पालन पोषण किया हुआ धर्मवृक्ष क्रोधकी आगसे क्षणमात्रमें भस्म होजाता है। अमितगति महाराज कहीं कहते हैं
वरं विवर्धयति सख्यमपाकरोति, रूपं विरुपयति निन्द्यमति तनोति । .
दौर्भाग्य मानयति शातयते च कीर्ति, रोषोऽत्र रोषसहशो नहि शत्रुरस्ति ॥ भावार्थ-यह क्रोध वैरको बढ़ा देता है, मित्रताको नाश कर देता है, शरीरके रूपको विगाड़ म देता है, बुरिको निंदनीय व हिंसक बना देता है, दुर्भाग्य या पापको लाकर खड़ा कर देता है, ॐ पशको मिटा देता है। यहां क्रोधके समान कोई शत्रु नहीं है।
श्लोक-मानं च अनृते रागं, माया विनाश दृष्टते ।
. अशाश्वतं भावं वृद्धिः, अधर्म नरयं पतं ॥ २६ ॥ अन्वयार्थ (अनुते ) मिथ्या अवस्थाओं में (राग) राग करना (मानं) मान होनेका (माया) व ४ मायाचार होनेका कारण है। इन दोनों कषायोंसे (विनाश) आत्माका नाश (इष्टते) दिखलाई पड़ता है।(मशास्वतं भावं) पर्याय बुद्धिक क्षणिक भाव (वृद्धिः) बढ़ता जाता है (अधर्म) अधर्म होता है.. (नरवं पतं)वनरकमें पतन होता है। विशेषार्थ-आत्माके शुर स्वरूपके सिवाय शेप सर्व पर्याय नर पशु देव नारक सम्बन्धी अंत.
॥१८॥