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श्रावकार
तारणतरण
* गुणोंको स्मरण करते हुए धर्म, समाज व जातिकी सेवा करे। संतोषसे ब्रह्मचर्य व्रत पाले तो उसका
र सतीपन यथार्थ है। जिन लौकिक क्रियाओंसे कोई वीतराग आत्मा सम्बन्धी भावोंका स्मरण न हों ॥३१॥ वे सब लोकमूढ़तामें गर्भित हैं।।
श्लोक-लोकमूढ़रतो येन, देवमूढस्य दिष्टते ।
पाषंडी मृढ़संगेन, निगोयं पतितं पुनः॥२८॥ मन्वयार्थ (लोक मूढ़ रतः) जो लोकमूढ़तामें फंसा हुआ जीव है (येन) उसके (देवमूढस्य) देव मूढ़ता (दिष्टते) दिखलाई पड़ती है (पुनः) तथा (पाषंडी मृदसंगेन) पाषंडी मूढ़ताके संगसे (निगाय) निगोदमें (पतनं ) वह जीव गिर जाता है।
विशेषार्थ-मिथ्यादृष्टीके तीन मूहता पाई जाती है। वह मूढ़तासे किसी लौकिक आशाके कारण रागी देषी देवोंको पूजने लग जाता है तथा जो साधु सच्चे साधु नहीं हैं उनकी मान्यता करने लग जाता है। तीन कषायके कारण वह निगोदमें चला जाता है। पंचेन्द्रियसे एकेन्द्री साधारण वनस्पतिमें जाकर जन्म लेता है। इसीको निगोदमें जन्म लेना कहते हैं, जहां ज्ञान बहुत अधिक ढका हुआ होता है। उस निगोदसे निकलना फिर अनंतकाल में दुर्लभ होजाता है। जो
मूर्खता करे वह ज्ञानको बिगाड़कर अज्ञानी होजावे इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। यहां यह दिखलाया से है कि हे भव्य पुरुषों! यदि वृक्षादिकी पराधीन पर्यायों में जानेसे बचना हो तो लोक मूढ़ताके साथर देवमूढता व पाखंडि मूढताको भी त्यागो । इनका स्वरूप रत्नकरण्डमें ऐसा कहा है
वरोपलिप्सयाशावान् , रागद्वेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामूढ़मुच्यते ॥ २३ ॥ ____ भाषार्थ-सांसारिक सुखकी आशा करके किसी पर पानेकी इच्छासे राग द्वेषसे मलीन देवताओंकी जो पूजा करता है वह देवमूढता कही जाती है। वीतराग सर्वज्ञ अरहंत और सिद्ध भग वानके सिवाय और सर्व ही सराग व अल्पज्ञ हैं उनको पूज्यनीय मानकर इस भावसे भक्ति करना कि ये देवी देवता प्रसन्न होकर हमारा इच्छित काम कर देंगे, देवमूढ़ता है। आत्मसिद्धिके लिये व अपने आत्माके भावोंको शुद्ध करनेके लिये कोई भी बुद्धिमान रागीदेषी देवी देवताओंकी उपासना