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वारणतरणY नहीं करता है। जो कुछ भी पूजा पाठ इनका लोकमें देखा जाता है वह सब लौकिक आशासे ही
श्रावकाचार ४ देखा जाता है। कोई धनकी, कोई पुत्रकी, कोई अधिकारकी, कोई जय पानेकी इत्यादि मिन्न २४ इच्छाओंके वशीभूत हो मूढ़ लोग ऐसी मानता मांगते हैं कि यदि हमारा काम सिद्ध होजावेगा तो हम यह चढ़ावेंगे या इस तरह भक्ति करेंगे । कदाचित् अपने पुण्यके उदयसे कार्य सिद्ध होजाता है तो यह अज्ञानी ऐसा मान लेता है कि देवी देवताकी कृपासे ही मेरा काम हुआ है, बस, उसकी देवमूढता और बढ़ जाती है। वह और अधिक कुदेवोंका भक्त बन जाता है। सम्यक्तीको न तो लौकिक कार्योंकी इच्छा ही होती है और न वह इस इच्छासे किसीरागीदेषी देव देवीकी पूजा भक्ति करता है।जो अपना कल्याण चाहें उसको कभी भीरागीदेषी देवोंकी उपासनान करनी चाहिये । यदि कदाचित् कोई इन्द्र धरणेन्द्र यक्ष-यक्षिणी आदि साक्षात् सामने आजावें तो सम्बनी जीव उनके साथ वैसा ही योग्य वर्ताव करेगा जैसा साधर्मी मानवोंके साथ करता है । जितने इन्द्रादि देव देवी होते हैं, वे चौथे गुणस्थान से अधिक नहीं चढ़ सके। इसलिये उनके साथ वही वर्ताव करना उचित
होगा जो चौथे गुणस्थान सम्बन्धी श्रद्धावान मानवके साथ होगा। यथायोग्य आसन दान आदि V करेगा उनको उस तरह कभी पूजेगा नहीं जिस तरह श्री वीतराग भगवानकी पूजा उपासना की ४ जाती है। रागी देषी देवोंकी मूर्ति बनाकर पूजना बिलकुल देवमूढ़ता है। ऐसी मूढ़तासे वह मूढ़ प्राणी वीतराग देवकी उपासनामें शिथिल होजाता है। . पाषंडी मूढताका स्वरूप रखकरंडमें कहा है
“सग्रन्थारंभहिंसानां संसारावर्तवार्तनाम्, पापण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाषाण्डमोहनम् ॥ ७॥ भावार्थ-परिग्रह आरंभ तथा हिंसा कर्ममें लीन संसारके भवरमें घूमनेवाले भेषी साधुओंकी पूजा व भक्ति करना पाण्डि मूढता जानना चाहिये । निग्रंथ दिगम्बर जैन साधुके सिवाय अन्य परिग्रह सहित साधुओं की भक्ति करना मूढता है। मोक्षमार्गमें सहकारी निर्ग्रथ आत्मरमी बैंक साधु है उनहीकी भक्ति मुमुक्षु जीवको करनी चाहिये । किसी भी प्रयोजनसे उनके सिवाय अन्य आरंभी परिग्रहवान साधुओंकी भक्ति न करनी चाहिये । ये तीन मूढताएं जीवको निगोद में डालनेवाली हैं।