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लक्षण है । याकरि आत्मा पहचान, स्तोकज्ञानी आत्मा न होय, यह दोष लागे । बहरि जो | लक्ष्यविर्षे पाइए ही नाहीं, ऐसा लक्षण जहां कहिए, तहां असंभवपणा नानना । जैसें मा | त्माका लक्षण जड़पना कहिए । सो प्रत्यक्षादि प्रमाणकर यह विरुद्ध है ताते यह असंभव, लनल है । याकरि आत्मा माने पुद्गलादिक भी आत्मा होय जाय । अर आत्मा है; सो अनात्मा होय जाय, यह दोष लागें । ऐसें अंतिव्याप्त अव्याप्त असंभवी लक्षण होय, सो लक्षणाभास है । बहुरि लक्ष्यविषे सर्वत्र पाइए, अर अलक्ष्यविषै कहीं न पाइए, सो सांचा लक्षण है । जैसैं आत्माका लक्षण चैतन्य है । सो यह लक्षण सर्व ही आत्माविषै तो पाइए है, अनात्माविषै कहीं न पाइए । तातै यह सांचा लक्षण है । याकरि आमा मानें आत्मा अनात्माका यथार्थ ज्ञान होये, किछू दोर्षे लागे नाहीं । ऐमें लक्षणका स्वरूप उदाहरणमात्र कह्या। ॥ अव सम्यग्दर्शनादिकका सांचा लक्षण कहिए है, विपरीताभिनिवेशरहित जीवादि ।
तत्त्वार्थश्रद्धान सो सम्यग्दर्शनका लक्षण है । जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्बरा, मोक्ष, ए सात तत्वार्थ हैं। इनका जो श्रद्धान ऐसे ही है अन्यथा नाहीं ऐसा प्रतीति भाव, सो खत्वार्थश्रद्धान है । बहुरि विपरीताभिनिवेश जो अन्यथा अभिप्राय ताकेरि रहित सो सम्यग्दर्शन है । यहाँ विपरीताभिनिवेशका निराकरणके अर्थि 'सम्यक' पद कह्या है । जाते
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