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________________ वारणतरण ।।३.४६।। चेष्टा परस्त्री व्यसन के सदृश भावोंको विकारी बनानेवाली है अतएव परस्त्री व्यसन में गर्भित है । यहां यही तात्पर्य है कि काम भावोंको उत्पन्न करनेवाली कथाओंको कभी भी सुनना, पढना व रचना न चाहिये। विवेकियोंको शील भाव दृढ करनेवाली कथाओंको सुनना व पढना व रचना चाहिये । श्लोक-मनादिकाय विचलंति, इन्द्रियविषय रक्षितं । व्रतखण्डं सर्व धर्मस्य, अनृतं अचेतं सार्द्धं ॥ १४१ ॥ अन्वयार्थ - ( मनादिकाय ) मनको आदि लेकर अर्थात् मन, वचन, काय तीनों (विचलति ) आकुलित होजाते हैं । ( इन्द्रियविषय रंजितं ) इंद्रियोंके विषयोंमें रंजायमान पना होजाता है । ( व्रतखण्ड ) ब्रह्मचर्य का खण्डन होजाता है । ( सर्व धर्मस्य अनृतं ) सर्व धर्म में मिथ्यापना होजाता है ( अचेत सार्द्ध ) साथ में मिथ्याज्ञान भाव दृढ होजाता है । विशेषार्थ — स्त्री सम्बन्धी विकथाओंके करनेसे मनमें आकुलता होजाती है। राग सहित वचका प्रयोग स्त्रियोंसे करने लग जाता है । स्त्रियोंके अंगादिको स्पर्श करनेकी कुचेष्टा भी कायसे होने लगती है । इस कामको तीव्रताके वश होकर पांचों इंद्रियोंके विषयोंमें रंजायमान पना हो जाता है। मनोहर वस्त्रादि, पलङ्गादि व परस्त्री वेश्यादिका स्पर्श करने में मन राजी रहता है । जिह्वाकी लोलुपता बढ जाती है, मिष्ट व कामोद्दीपक पदार्थ व मादक पदार्थ खाने में मन प्रसन्नता मानता है । अतर फुलेल लगाने में व फूलोंकी माला सूंघने में अनुरक्त होजाता है। आंखों में चंचलता बढ जानेसे निरन्तर मनोहर रूपके देखनेकी कामना दृढ होजाती है । कानोंसे सदा मनोहर गान, सुर ताल सहित सुननेकी तीव्र रुचि होजाती है । इसीसे ( व्रतखण्डं ) ब्रह्मचर्य व्रतका खण्डन होजाता है । तब जो कुछ अहिंसादि व्रत होते हैं उनका उसके भावोंमें सत्यपना नहीं रहता है । वह अतिरागी होकर अपने शील भावका हिंसक होजाता है । परस्त्रियोंके लिये अभिलाला करके उनकी प्राप्तिकी भावना से मिथ्या वचन बोलने में व गुप्तरूप से चोरी करने की भावना होजाती है । परिग्रहकी लालसा बढ़ जाती है । कुशीलकी अन्याय जनित प्रवृत्तिकी भावनासे सर्व धर्म उसके मिथ्या होजाते हैं । साथ में उसका ज्ञान भी निर्मल नहीं रहता है, मिथ्यात्वका उदय आजाता है और उसका सर्व 12 श्रावकाचाव ॥ १४६॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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