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वारणतरण
॥१४७॥
शास्त्रज्ञान मिथ्याज्ञानपनेको प्राप्त होजाता है। इसलिये जो ब्रह्मचर्यव्रतको, सर्व देश या एक
श्रावकाचार देश पालना चाहें उनको उचित है कि वे काम कथाके प्रपंचमें न पडे न ऐसी कुसंगति रक्खे जिससे मन भी किसी तरह विचलित होजावे । परिणामोंकी सम्हाल निमित्तोंके बचानेसे होगी। इसलिये ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिये तत्वार्थसूत्र में पांच भावनाएं बताई हैं
स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्टष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पंचः॥॥
भावार्थ-(२) स्त्रियों में राग बढानेवाली कथाओंका सुनना छोडना चाहिये, (१) उन स्त्रियोंके मनोहर अंगोंके देखनेका त्याग करना चाहिये, (३) पूर्वमें भोगे हुए भोगोंकी स्मृति न करनी चाहिये, (४) कामोद्दीपक पौष्टिक रस न खाना चाहिये, (५) अपने शरीरका श्रृंगार न करना चाहिये। मनकी चंचलता बडी विचित्र है। जरा भी विपरीत निमित्त होता है तो मन विकारी होजाता है। मनका विकारी होना ही कामदेवका उत्पादक है।
श्लोक-विषये रञ्जितं येन, अनृतानंद संजुतं ।
पुण्योत्साहं उत्पादी, दोषे आनंदनं ॥१४२॥ अन्वयार्थ-(येन विषये नितं ) जो पांच इंद्रियोंके विषयों में रंजायमान होजाता है वह ( अनृतानन्द संजुतं) मृषानंद रौद्रध्यान सहित होजाता है या मिथ्यात्वमें आनंदवान होजाता है। (पुण्योत्साहं उत्पादी) वह पुण्य करने में उत्साह पैदा कर लेता है। इस तरह (दोषे) जो संसारका कारण दोष है उसमें (भानंदनं कृतं) प्रसन्न होकर तन्मय होजाता है।
विशेषार्थ-स्त्री सम्बन्धी काम कथाका बुरा फल यह होता है कि यह प्राणी मूढ होकर जिन इंद्रियोंकी वांछा एक सम्यग्दृष्टीको नहीं होनी चाहिये उनहीमें यह रंजायमान होने लगता है। बस मिथ्यात्वके उदयसे मिथ्यात्वी होजाता है या सत्य मार्गसे हट जाता है और मिथ्या मार्गमें आनंद मानने लगता है। उसके भीतरसे वीतराग विज्ञानमय सत्य धर्मकी रुचि चली जाती है। ऐसा विषय योका लोभी मोक्षमार्गको भूलकर पुण्य कर्म करने में बडा ही उत्साही होजाता है। अर्थात् पुण्यकी तीव्रता होगी तो मनोवांछित भोग स्वगों में व राजा महाराओंके पाकर खूब विषयभोग करूँगा, इस