________________
वारणतरण
॥ १४८ ॥
भावनामें लिप्त हो बडे भावसे पूजा पाठ करता है, भजन पढता है, दान देता है, शास्त्र पढता है, नियम संयम पालता है, उपवास करता है, मुनि होकर दिगम्बर साधुका कठिन चारित्र पालता है या श्रावक व्रतको पालता है तौभी मोक्षमार्ग से विपरीत चलता हुआ, भोगोंकी तृष्णाके उद्देइयको रखता हुआ जो दोष है उसमें आनन्द मान लेता है । वह अपने कठोर चारित्रको विषयरूपी विषके बदले में वेच डालता है । जिस चारित्र से स्वरूपाचरण चारित्र होकर अतीन्द्रिय आनन्दका लाभ होता था, निर्वाणका शाश्वत सुख प्राप्त होसक्का था उस चारित्रको उतनी ही मिहनत से पालता हुआ त्यागने योग्य मिथ्या वस्तुकी चाह में ही फंसा रहता है, विषयोंकी आशा में आनन्द मानता है । जैसे कोई धनकी प्राप्तिके आनन्द में तीव्र आतापमें भी नंगे पैर भारी भार लेकर ढोता है, बहुत उपसर्ग सहता है, ऐसे ही अज्ञानी जीव क्षणिक विषयसुखकी आशासे महान मुनिका या श्रावकका चारित्र शास्त्रोक्त पालता है - मिथ्यादृष्टी होता हुआ संसार वर्द्धक दोषकी ही सेवा कर रहा है । इस तरह यहां ग्रन्थकर्ताने परस्त्री व्यसनको बहुत अच्छी तरह बताया है । श्रावक गृहस्थियोंका यह मूल कर्तव्य होना चाहिये कि वे मोक्षकी भावनासे जीवन वितायें । निरंतर संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य भाव रक्खें, निजानन्द पदके गाढ प्रेमी होजावें, ऐसे गृहस्थी पांच इंद्रियोंके भोगोंको बहुत नियमित आवश्यक्तानुसार रोगके इलाजवत् रुचि रहित करते हैं । वे शुद्ध मनसे अपनी विवाहिता स्त्री में संतोषित रहते हैं । कामभावकी अग्निको उत्तेजित करनेवाली सर्व मन वचन कायकी क्रियासे, कुसंगति से, कथा आलापसे सबसे बचते हैं । वास्तव में ये सातों ही व्यसन मानवोंके परम वैरी हैं । जो अपना हित चाहे उनको इनसे बचकर रहना चाहिये तथा उनके सर्व अतीचारोंको भी बचाना चाहिये । इस कथन से यह बात तत्वज्ञानीको झलक जायगी कि अनंतानुबंधी कषायके भाव किस तरह प्राणीको मिथ्यात्वमें पटक देते हैं अथवा मिथ्या ज्ञानसे किस तरह यह प्राणी व्रत तप करता हुआ अनंतानुबंधी कषायके फेर में अचेत होजाता है ।
श्रावकाचार
॥१४८